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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
'मतिज्ञान चतुर्विधम्'
- लघीयस्त्रय १/५ अतः यदि हमारे साधु नयज्ञान करके तत्त्वज्ञान करने में लग जाएँ और सम्यग्ज्ञान का अंश भी प्राप्त कर लें तो वे पूजनीय वंदनीय बन सकते हैं। आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द एवं उमास्वामी आदि समस्त मुनिराज भी अपने तत्त्वज्ञान / नयज्ञान के कारण ही परमपूजनीय माने जाते हैं -
धरसेनं मुनीद्रं च पुष्पदन्तसमाह्वयम् । जिनचन्द्रं कुन्दकुन्दमुमास्वामिनमर्थये ।।
- आचार्य जयसेन, प्रतिष्ठापाठ ३१६ मात्र दूसरों की चिंता में उलझे रहना ठीक नहीं है। आचार्यों ने परचिंता को अधम से अधम कार्य कहा है- 'परचिन्ताऽधमाऽधमा'
"जो दूसरों की आत्माओं का उद्धार करते फिरते हैं, वे प्रायः अपनी आत्मा को भूल जाते हैं।" अतः सर्वप्रथम आत्महित करना चाहिए -
आदहिदं कादव्वं जदि सक्कदि परहिंदं पि कादव्वं । आदहिद परहिदादो आदहिदं सुठु कादव्वं ।।
अनगार धर्मामृत तात्पर्य यही है कि जीवन में नयज्ञान अनिवार्य है, उसके बिना कुछ भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। महाकवि कालिदास ने भी 'अर्हत्' को 'नयचक्षुषे ' विशेषण देकर सम्भवतः उनके नयप्रमाण ज्ञातृत्व की ओर संकेत किया है - "अर्हणामर्हते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे ।” -महाकवि कालिदास, रघुवंश १/५५
इससे ज्ञात होता है कि महाकवि कालिदास को भी जैनदर्शन का अच्छा ज्ञान था। वे जानते थे कि नय-व्यवस्था अरिहंतों की, जैनदर्शन की मौलिक विशेषता है। इस सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रिय ख्यातिप्राप्त विद्वान् डॉ. सत्यव्रत शास्त्री
भी मुझे महाकवि कालिदास का एक श्लोक और बताया है जिससे सिद्ध होता है कि कालिदास जैनदर्शन से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने 'कुमारसम्भव' में शिवजी के मुख से ऋषियों को निम्नलिखित उपदेश दिलाया है - 'अद्यप्रभृति भूतानामभिगम्योऽस्मि शुद्धये ।
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यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते ।।
• महाकवि कालिदास, कुमारसम्भव, ६-५६ आज से मैं उसी की शरण को प्राप्त करता हूँ जो सभी जीवों की शुद्धि के लिए बताया गया है; क्योंकि जो अरिहंतों के द्वारा कहा गया है, वही वास्तव में धर्म तीर्थ है।
प्रस्तुत पुस्तक में पृष्ठ १९ पर मुनिराज कहाँ ठहरते हैं इस विषय की भी कुछ चर्चा आयी है। वर्तमान में जिनकल्पी साधु नहीं होते, स्थविरकल्पी साधु होते हैं, जिनका स्वरूप इसप्रकार है -
"संहणणस्य गुणेण य, दुस्सम कालस्स तह पहावणे । पुरणयर गामवासी, थविरे कप्पे ठिया जाया ।। "
- आचार्य देवसेन, भावसंग्रह १२७ इस दुषम काल में शरीर के संहनन बलवान् नहीं होते हैं, इसलिये वे अनागार किसी नगर, ग्राम व किसी पुर में रहते हैं और अपने तप के प्रभाव से स्थविरकल्पी अनगार कहलाते हैं; क्योंकि वास्तव में साधु को जनपद या जंगल में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता -
“ थिरकय जोगाणं पुण, मुणीण ज्झाणेसु णिच्चलमणाणं । गामम्मि जणाइणे, सुण्णे रणे य ण विसेसो ।।"
आचार्य वीरसेन, धवला, वग्ग, पु. १३, ५, ४, २६, पृष्ठ ६७ अर्थ - परन्तु जिन्होंने अपने योगों को स्थिर कर लिया है और जिसका मन ध्यान में निश्चल है, ऐसे मुनियों के लिये मनुष्यों से व्याप्त जनपद, ग्राम और शून्य जंगल में कोई अन्तर नहीं है। ऐसा ही आचार्य शुभचन्द्र ने भी कहा है - "विजने जनसंकिर्णे सुस्थिते दुःस्थितेऽपि वा । सर्वत्राप्रतिबद्धः स्यात्संयमी संगवर्जितः ।। "
- आचार्य शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव, १६/३४/८५४ अर्थ - जो अनगार ममता को छोड़कर निःस्पृह हो जाता है, वह चाहे जन शून्य वन स्थान में एकान्त अवस्थित हो और चाहे जनसमुदाय से व्याप्त किसी नगर आदि में अवस्थित हो, तथा इसी प्रकार से वह चाहे दुःख की अवस्था में हो और चाहे सुख की अवस्था में हो; वह सब ही अवस्था में प्रतिबद्ध से रहित होता है - वह सर्वत्र स्वाधीन सुख का ही अनुभव करता है।