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तत्त्वज्ञानरहित निर्ग्रन्थ होना निष्फल है
- राष्ट्रसंत सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्यश्री विद्यानन्दजी मुनि आचार्य वादीभसिंह ने यहाँ एक अत्यन्त मर्मस्पर्शी सन्देश हम सबको यह दिया है कि "तत्त्वज्ञानविहीनानां नैर्ग्रन्थ्यमपि निष्फलम् । अर्थात् तत्त्वज्ञान के बिना तो निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि बनना भी निष्फल है।" अत: हमें कोटि उपाय करके भी सर्वप्रथम तत्त्वज्ञान अवश्य करना चाहिए। मोक्षमार्ग का हेतु तत्त्वज्ञान अति आवश्यक ही नहीं, अत्यन्त अनिवार्य है। उसके बिना मोक्षमार्ग में प्रवेश ही सम्भव नहीं है। तथा यह तत्त्वज्ञान नयज्ञान के बिना नहीं हो सकता, अत: जीवन में नयज्ञान भी अनिवार्य है। समस्त पूर्वाचार्यों ने तत्त्वज्ञान के लिए नयज्ञान की उपयोगिता का सशक्त प्रतिपादन किया है। उदाहरणार्थ -
"णत्थि णएहि विहूणं सुत्तं अत्थोव्व जिणवरमदम्हि। तो णयवादे णिवुणा मुणिणो सिद्धतिया होति ।। तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्हि जदिदव्वं ।
अत्थ गई वि य णय-वाय-गहण-लीणा दुरहियम्मा।।' अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के मत से नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है। इसलिए जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं, वे सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता समझने चाहिए। अत: जिसने सूत्र अर्थात् परमागम को भले प्रकार जान लिया है, उसे ही अर्थसम्पादन में अर्थात् नय और प्रमाण के द्वारा पदार्थ के परिज्ञान करने में प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि पदार्थों का परिज्ञान भी नयवाद रूपी जंगल में दुरधिगम्य अर्थात् जानने के लिए कठिन है।"
आचार्य देवसेन ने भी समयसार को नय-प्रमाणादि रत्नों का विशाल पर्वत बतलाते हुए नयचक्र के ज्ञान की हार्दिक प्रेरणा प्रदान की है। यथा -
जिनप्रतिमतमह्यां रत्नशैलादपापाद् । इह हि समयसाराद् बुद्धबुद्ध्या गृहीत्वा ।। प्रहतघनविमोहं सुप्रमाणादिरत्नं ।
श्रुतभवनसुदीपं विद्धि तद्व्यापनीयम् ।।२।। १. क्षत्रचूड़ामणि ६/१८, २. षट्खण्डागम १/१/१/६८ ३. श्रुतभवनदीपकनयचक्र, पृष्ठ १७
अभिमत
२१३ निश्चय से तीर्थंकर भगवान के धर्मरूपी पृथ्वी पर समयसार रूपी पवित्र रत्नमयी पर्वत से विवेकबुद्धि के द्वारा अच्छी तरह समझकर घने मोहान्धकार से रहित सम्यक् नय-प्रमाणादि रत्नों से भरे हुए इस समयसार नामक रत्नपर्वत से व्याप्त श्रुतज्ञान रूपी नंदाद्वीप स्वरूप श्रुतभवनदीपक' नामवाले नयचक्र को जानो।
प्रमाण का अर्थ है - प्रमाण - प्र = उत्कृष्ट, मा = अन्तरंग लक्ष्मी केवलज्ञान और बहिरंग लक्ष्मी समवशरण, अण् = दिव्यध्वनि ही प्रमाण है।
सारांश यह है कि नयज्ञान के बिना शास्त्रों की एक पंक्ति भी ठीक से नहीं समझी जा सकती, अत: सर्वप्रथम नयज्ञान करना चाहिए और फिर उस नयज्ञान से तत्त्वज्ञान करके सम्यक्चारित्र को धारण करना चाहिए । यही जीव के कल्याण की समीचीन विधि है।
वर्तमान में तत्त्वज्ञान/नयज्ञान की स्थिति बड़ी शोचनीय है। अनेक साधु भी इस कसौटी पर असफल सिद्ध हो के हैं, जबकि साधुओं को तो विशेष रूप से नयों का ज्ञाता होना चाहिए।
वर्तमान में साधु-समुदाय में जितनी भी कमियाँ दिखाई देती हैं, असल में उन सबका मूल कारण तत्त्वज्ञान/नयज्ञान का अभाव है। ज्ञान क्या है, उसके कितने भेद-प्रभेद हैं, उन सबका क्या-क्या स्वरूप है -इतना ही आज हमारे कुछ साधुओं को मालूम नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तो इस सम्बन्ध में यहाँ तक लिख दिया है कि जिसके पास मतिज्ञान के चार भेदों (अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा) की भी सम्पत्ति है, मैं उसे प्रणाम करता हूँ। यथा -
"उग्गह-ईहावायाधारणगुणसंपदेहि संजुत्ता।
सुत्तत्थभावणाए भावियमाणेहि वंदामि ।। वे आचार्य परमागम अर्थ की भावना से भाव्यमान - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूपी संपदाओं से संयुक्त होते हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता
- आचार्यभक्ति, ९ विशेष - अवग्रह का अर्थ आरंभिक ज्ञान है। यह एक तरह का क्रियाशील
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ज्ञान है।