________________
२१०
चलते फिरते सिद्धों से गुरु
और कौन लिख सकता है ?
इतने अत्यावश्यक, गंभीर व संवदेनशील विषय पर सकारात्मक सोच के पूर्ण मर्यादापूर्वक एवं विनयपूर्वक दादा के अलावा और कौन लिख सकता है ? इस वर्तमान परिस्थिति में 'चलते फिरते सिद्धों से गुरु' काफी समयानुकूल है। एवं इस पुस्तक में संपूर्ण विषय छू लिया गया है, वह भी आगम सम्मत एवं पूरी सावधानीपूर्वक, निश्चित ही सराहनीय है।
बड़ी कुशलता से कहानी के रूप में अत्यन्त सरल भाषा-शैली में अन्य आवश्यक विषय भी स्पष्ट हो गये हैं।
आत्मकथ्य में ही लेखक ने स्वयं की निर्ग्रन्थ बनने की भावना भायी है, अतः इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि पुस्तक लिखते समय लेखक की कितनी पवित्र भावना रही होगी, इससे पुस्तक का महत्त्व और भी बढ़ जाता है, पुस्तक का नाम भी बड़ा आकर्षक है, दादा सराहनीय हैं... हम प्रार्थना करते हैं। कि उनकी कलम ऐसी ही चलती रहे, जिससे आने वाली पीढ़ी को सही मार्गदर्शन मिलता रहे। - शुद्धात्मप्रकाश भारिल्ल, जयपुर अपूर्व कृति ...
कठिन से कठिन विषय जन-जन की समझ में सुगमता से आ सकें ऐसी सरल भाषा एवं सुगम रोचक शैली में प्रस्तुत करने की कला में आदरणीय बड़े दादा सिद्धहस्त हैं। उनकी लेखनी से प्रसूत साहित्य धर्मजिज्ञासु जनमानस को अत्यन्त रुचिकर लगता है। प्रस्तुत कृति 'चलते फिरते सिद्धों से गुरु' भी इसका अपवाद नहीं है।
गुरु का अन्तर्बाह्य जीवन कैसा होता है, इस गंभीर विषय को लेखक ने अत्यन्त कुशलता के साथ आगम के अनुशासन में रहकर निर्भयता एवं निःशंकता से प्रस्तुत किया है । उद्दिष्टआहार की व्याख्या करते हुए लेखक ने जो आगमसम्मत एवं युक्तिसंगत विचार प्रस्तुत किए हैं, वे विशेष रूप से पठनीय हैं।
मानव मन या तो मुनिजीवन को अत्यन्त अद्भुत समझने लगता है और उस भूमिका में संभाव्य प्रवृत्तियों को भी दोष के रूप में देखने लगता है या फिर इतना उदार हो जाता है कि स्थूल शिथिलाचार भी उसकी दृष्टि में नहीं आता ।
मुनि का व्यावहारिक जीवन कैसा होता है/आगम के आलोक में इसका विशद / व्यवस्थित विवेचन प्रस्तुत कृति में प्राप्त होता है; इससे जिज्ञासु पाठकों की अनेक शंकाओं का समाधान तो होगा ही; स्वाध्यायी जीवों को सोचने के नये आयाम भी प्राप्त होंगे। - पीयूष जैन, शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य, एम. ए., बी. एड., ए-४, बापूनगर जयपुर-३०२०१५
106
अभिमत
२११
मुनिस्वरूप पर बेजोड़ कृति
'चलते-फिरते सिद्धों से गुरु' जैसी कृति की आज के समय में महत आवश्यकता थी। समाज का मुनियों के प्रति सम्मान तो खूब है; परन्तु मुनियों के स्वरूप से समाज अनभिज्ञ है। इस कृति में मुनिपद की महिमा भी बताई गई है और उनके स्वरूप और चर्या की सांगोपांग चर्चा की गई है।
सरल व सरस भाषा में मुनियों के स्वरूप पर लिखी गई यह बेजोड़ कृति है । पाठकों को मुनियों के स्वरूप का दिग्दर्शन तो इस कृति के माध्यम से होगा ही, मुनिपद धारण करने वालों को भी सुगम राह दिखाने में उपयोगी सिद्ध होगी। प्रस्तुत कृति से लेखक की मुनियों के प्रति सम्यक् श्रद्धा का भान भी पाठकों को होगा ।
यद्यपि आज के इस अर्थ प्रधान भौतिक युग में पठन-पाठन के लिए समय निकाल पाना कठिन है, तथापि इस उपयोगी और रोचक कृति के पठन-पाठन से गुरु भक्ति के प्रति पाठकों का बहुमान बढ़ेगा। स्वयं पढ़ें, मित्रों को पढ़ायें।
- अखिल बंसल, एम.ए. (हिन्दी), डिप्लोमा पत्रकारिता, सम्पादक - समन्वयवाणी (पाक्षिक), महामंत्री अ.भा. जैन पत्र सम्पादक संघ ऐसी पुस्तक अब तक कहीं देखने में नहीं आई
प्रस्तुत कृति में दिगम्बर संतों के अन्तर्बाह्य स्वरूप को बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है। दिगम्बर संतो की सर्वांगीण चर्चा को एक ही स्थान पर प्रस्तुत करनेवाली यह कृति पचासों ग्रन्थों के सैंकड़ों आगम प्रमाण लेकर निर्मित है।
यह पुस्तक मुनियों की सम्पूर्ण जीवनचर्या, विविध अपेक्षाओं से आगम में उपलब्ध मुनियों के भेद-प्रभेद, उनके मूलगुण, उत्तर गुण आदि का एक ऐसा प्रामाणिक कोश बन गया है, जहाँ पाठक को मुनियों के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी एक ही पुस्तक में उपलब्ध हो सके।
अष्टपाहुड़ आदि द्वारा मुनिराजों को निर्देश देकर शिथिलाचार से सावधान किया है; वे ही निर्देश वर्तमान मुनिराजों को मार्ग दर्शन के लिये भी पर्याप्त है। संभवतः यह सोचकर ही मानो इस पुस्तक में कहीं भी किसी भी प्रकार के शिथिलाचार की कोई चर्चा नहीं की है। यहाँ तो मात्र विशुद्ध भावना से मुनि जीवनचर्या पर प्रकाश डाला है। और ही उन्हें चलते-फिरते सिद्ध कहा गया है।
अन्त में यही कहकर संतोष कर रहा हूँ मुनि जीवन का ऐसा सर्वांगीण विशुद्ध चित्रण करनेवाली पुस्तक अब तक देखने में नहीं आई।
- संजीवकुमार गोधा, डबल एम.ए (जैनविद्या एवं धर्म दर्शन; इतिहास), नेट (बौद्ध, जैन, गांधीवादी, शांति अध्ययन), एम.फिल (जैन दर्शन), जयपुर