SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला का सार पहला प्रवचन तो उस जीव की भूख व उसकी आकुलता का वर्णन कर रहे हैं। हमारी समझ में यही आता है कि हम रोजाना दो रोटियाँ खाते हैं और हमारी भूख शान्त हो जाती है और जिस दिन हमें दो रोटियाँ नहीं मिले तो हम तड़प उठते हैं। दो रोटियाँ नहीं मिलने का दुःख कितना होता है और उससे अंदाज लगाओ की तीन लोक के अनाज का दु:ख कितना होगा? यह कोई ऐसी बात नहीं है कि आप रिसर्च करने बैठ जायें कि कहाँ-कहाँ अनाज पैदा होता है? । आपको दो रोटी की भूख है, किसी को दस रोटी की है; लेकिन दो वाले को दो नहीं मिले और दस वाले को दस नहीं मिले तो दोनों का दुःख बराबर ही होता है। हमारे इस जगत के जो जीव हैं, उनको यह समझ में ही नहीं आता। उनको तो सिर्फ खाने में सुख और खाना नहीं मिलने में दुःख - यही समझ में आता है; इसलिए उनको उन्हीं की भाषा में समझाया है। प्यास लगती है तो बहुत तकलीफ होती है। एक गिलास ठंडा पानी मिल जाये तो प्यास बुझ जाती है। उन्होंने कहा - सिन्धु नीर” प्यास न जाय, तो पण एक न बूंद लहाय। समुद्र का सारा पानी पी जाये तो भी प्यास नहीं बुझै । यहाँ यह बता रहे हैं कि भूख-प्यास के दुःख से तुम परिचित हो, और जिन दुःखों से तुम परिचित हो, उससे तुम्हें अनुमान लगाना है, बस । इसप्रकार के अनन्त दुःख अनेक सागरों पर्यन्त सहन किये। मनुष्यगति में भी माँ के पेट में रहना, बचपन, जवानी और बुढ़ापे में होनेवाली अनेक प्रतिकूलताओं के दुःख ही दुःख भोगे। इसप्रकार कहानी चलती रही, नरक में गया, मनुष्य हुआ और फिर भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव हो गया तो भी सुख की प्राप्ति नहीं हुई। और अन्त में - ___जो विमानवासी हूँ थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय । यदि विमानवासी भी हो गया अर्थात् ऊपर के स्वर्गों में चला गया, तो भी सम्यग्दर्शन के बिना दु:खी ही रहा। नववें ग्रैवेयक में गया तो भी सुखी नहीं हुआ। कहा भी है - अंतिम ग्रीवकलौं की हद, पायो अनन्त विरिया पद। पर सम्यग्ज्ञान न लाधो, दुर्लभ निज में मुनि साधो।। यह जीव पंचपरावर्तन करते हुये अनन्त बार नौवें ग्रैवेयक तक गया, अहमिन्द्र पद पाया; किन्तु सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। इसलिये अनन्त दुःख उठाये। ____ भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी तो मध्यलोक और अधोलोक में रहते हैं। स्वर्गों में ऊपर सोलह स्वर्ग, फिर नौ ग्रैवेयक, फिर नौ अनुदिश, फिर पाँच अनुत्तर हैं, उसके ऊपर सिद्धशिला है। नवमें ग्रैवेयक में इस जीव ने ३१ सागर की आयु पाई, सभी प्रकार की अनुकूलतायें प्राप्त की, लेकिन सम्यग्दर्शन नहीं हुआ तो वहाँ भी सम्यग्दर्शन के बिना दुःख ही दुःख भोगा। वहाँ ३१ हजार वर्ष तक मन में खाने का विकल्प भी नहीं आता। ३१ हजार वर्ष बाद जब विकल्प आता है तो गले से अमृत झर जाता है, जबान झूठी तब भी नहीं होती। ऐसी स्थिति है फिर भी यहाँ कह रहे हैं कि वहाँ पर अनन्त दुःख पाया। प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में एक सुखाधिकार है। उसमें लिखा है - चक्रवर्ती, इन्द्र और नागेन्द्र - सभी दु:खी हैं। यद्यपि वे सभी को बहुत सुखी दिखाई देते हैं; तथापि वे चौबीसों घंटे भोगों में मग्न रहते हैं; अत: दु:खी ही हैं। यह तो आप जानते ही हैं कि चक्रवर्ती की पट्टरानी मासिक धर्म से नहीं होती, उसके बाल-बच्चे भी नहीं होते; क्योंकि यदि वह मासिकधर्म से हो, उसके बच्चे हों तो चक्रवर्ती के भोगों में बाधा पड़ेगी। चक्रवर्ती इतना पुण्यशाली होता है कि उसे निर्बाध भोगों की प्राप्ति होती है। (7)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy