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छहढाला का सार
पहला प्रवचन
प्रकार की होती है। निगोदिया जीव साधारण वनस्पति में होते हैं, प्रत्येक वनस्पति में नहीं होते। यह जीव निगोदरूप साधारण वनस्पति में से निकलकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति हुआ।
जिसप्रकार किसी को चिन्तामणि रत्न मिल गया हो; उसीप्रकार इसे त्रसपर्याय प्राप्त हुई। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव त्रस कहलाते हैं।
चिन्तामणि रत्न देखा तो आजतक किसी ने भी नहीं है। मात्र शास्त्रों में देखा है, पर शास्त्रों में देखना भी तो देखना है। कहते हैं कि चिन्तामणि रत्न जिसके पास होता है, वह व्यक्ति जो सोचता है, वह उसे मिल जाता है।
चिन्तामणि रत्न के मिल जाने से भी क्या होता है। अरे भाई ! जबतक संयोगों में सुखबुद्धि है, जबतक भोगों की इच्छा है; तबतक सुखी होना सम्भव नहीं है; क्योंकि बात मात्र इतनी ही नहीं है कि हमें आवश्यकतानुसार भोग सामग्री चाहिये, बात तो यह है कि लौकिक वैभव मात्र हमारे ही पास हो, पड़ौसी के पास नहीं। हम इतने ईर्षालु हो गये हैं कि हमें दूसरों का वैभव सुहाता ही नहीं है। इस बात को निम्नांकित उदाहरण से भलीभाँति समझा जा सकता है -
एक बार एक व्यक्ति ने बहुत तपस्या की तो शंकरजी ने प्रसन्न होकर कहा - जो चाहो माँग लो। उसने माँगा कि मैं जो चाहूँ, वह हो जाये। शंकरजी ने कहा - तुम जो चाहोगे, वह हो जायेगा; लेकिन इतनी सी बात है कि जितना तुम्हें मिलेगा, उससे दुगना तेरे पड़ौसी को मिलेगा।
तात्पर्य यह है कि यदि वह हजार रुपये मांगे तो पड़ौसी को दो हजार मिल जावेंगे, लाख मांगे तो पड़ौसी को दो लाख मिल जावेंगे।
तब उसने सम्पत्ति तो नहीं माँगी, पर विपत्ति माँगी। कहा - मेरी
एक आँख फूट जाय तो पड़ौसी की दोनों ही फूट गईं।
दूसरों की दोनों आँखें फोड़ने के लिए यह जीव अपनी भी एक आँख फोड़ने के लिए तैयार हो जाता है।
बोलो ऐसे जीव सुखी कैसे हो सकते हैं ?
इसप्रकार तिर्यंचगति में मारा जाना, काटा जाना, भारवहन कराना, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि के असीम दुःख भोगे।
नरकगति में भी सर्दी-गर्मी इतनी कि मेरु के समान लोहे का गोला भी छार-छार हो जाय, पिघल जाय । भूख-प्यास इतनी कि तीन लोक का अनाज खा जावे, समुद्रों का पानी पी जावे; तब भी न मिटे, पर एक कण अनाज और एक बूंद पानी न मिले।
कहा भी है - मेरु-समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय । सिन्धु नीरतें प्यास न जाय, तो पण एक न बूंद लहाय । तीन लोक को नाज जुखाय,मिटै न भूख कणा न लहाय । ये दुख बहु सागर लौं सहै, करम-जोग तैं नरगति लहै ।। देखो यहाँ कहा है कि तीन लोक में जितना अनाज पैदा होता है, वह सारा अनाज खा जाये तो भी नारकी की भूख नहीं मिटती है; फिर भी खाने के लिए उसे एक दाना नहीं मिलता।
तीन लोक में अनाज कहाँ-कहाँ पैदा होता है ? देवलोक में कौनसा अनाज पैदा होता है, नरकों में कौनसा अनाज पैदा होता है? मध्यलोक में इतने समुद्र हैं, उनमें कौनसा अनाज पैदा होता है ? जमीन पर भी जहाँ लोग रहते हैं, वहाँ अनाज कहाँ पैदा होता है ? बहुत कम एरिया है, जहाँ अनाज पैदा होता है। फिर तीन लोक का अनाज क्यों बोलते हैं ?
अरे भाई ! तुम्हें कल्पना कराकर उनके दुःख का अंदाज करा रहे हैं। अनाज कहाँ-कहाँ पैदा होता है - इसका वर्णन नहीं कर रहे हैं। वे
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