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छहढाला का सार
सातवाँ प्रवचन
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ।। यह राग-आग दहै सदा, तातै समामृत सेइये। चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निज-पद बेइये ।। कहा रच्यो पर-पद में न तेरो पद यहै क्यों दुख सहै।
अब 'दौल' होउ सुखी स्व-पद रचि दाव मत चूको यहै ।। जिन महाभाग्यवान जीवों ने मुख्य और उपचार अर्थात् निश्चय और व्यवहार - इसप्रकार दो भेदवाले रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र को धारण किया है और धारण करेंगे; उन जीवों को मुक्ति पद की प्राप्ति अवश्य होगी और उनका उत्कृष्ट कोटि का यशरूपी जल जगत के जीवों के मोह-राग-द्वेषरूप मल को हर लेगा।
देखो, यहाँ निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय को धारण करनेवाले सन्तों को बड़भागी कहा है। पंचम ढाल के आरंभ में भी मुनि सकलव्रती बड़भागी' कहकर मुनिराजों को भाग्यवान बताया है। ___ पण्डित दौलतरामजी कहते हैं कि इसप्रकार जानकर, प्रमाद छोड़कर, साहस ठानकर, मेरी इस शिक्षा का आदर करो कि जबतक बुढ़ापारूपी रोग तुम्हें जकड़ न ले, तबतक बहुत शीघ्रता से आत्मा का हित कर लो; क्योंकि यह रागरूपी आग तो सदा जला ही रही है; इसलिये समतारूपी अमृत का सेवन करो। विषय-कषाय का सेवन तो चिरकाल से कर रहे हो। अरे भाई! इसे अब तो छोड़ो और मुक्तिरूपी अपने पद को प्राप्त करो। ___ अरे भाई ! तू परपद में क्यों रच-पच रहा है, यह तेरा पद नहीं है। इसके लिये तू व्यर्थ ही क्यों अनन्त दुःखों को सह रहा है।
दौलतरामजी कहते हैं कि भाई ! तुझे यह मौका मिला है, तेरा दाव लग गया है; इसलिये तू इस दाव को किसी भी कीमत पर मत चूकना और अपने पद में, आत्मस्वभाव में रच-पचकर अनन्त सुखी हो जाना।
शब्दों का गठन तो देखो, भाषा का प्रवाह तो देखो -
इमि जानि, आलस हानि, साहस ठानि, यह सिख आदरौ। आपको याद होगा कवि ने आरंभ में ही कहा था कि - कहैं सीख गुरु करुणा धार, ताहि सुनो भवि मन थिर आन
गुरुदेव करुणा करके कुछ आत्महितकारी शिक्षा देते हैं; अतः हे भव्यजीवों ! तुम उसे मन को स्थिर करके सुनो।
यह बात आरंभ की थी और अब ग्रन्थ समाप्त हो रहा है। इसलिये याद दिला रहे हैं कि यह सिख आदरो - इस शिक्षा का आदर करो। ___ कोई कहे कि हम इस शिक्षा का आदर किस प्रकार करें ? तो उससे कहते हैं कि भाई ! जबतक बुढ़ापा नहीं आया है, तबतक आत्मा का हित कर लो, वरना .....। ___कुछ लोग कहते हैं कि धर्म करना तो बुढ़ापे का काम है; पर यहाँ यह कहकर कि जबतक बुढ़ापा नहीं आया है; तबतक आत्महित कर लो। तात्पर्य यह है कि आत्महित का काम जबतक स्फूर्ति रहती है; तबतक बचपन और जवानी में ही कर लेना चाहिये। बुढ़ापा भले ही समय पर आयेगा, पर रोग तो कभी भी हो सकता है। और बुढ़ापा आयेगा ही - इसकी क्या गारंटी है। अत: बात कल पर टालने की नहीं है। यह काम तो ऐसा है कि आज ही, अभी कर लेना चाहिये। अन्तिम प्रशस्ति के रूप में वे लिखते हैं -
(दोहा) इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुकल वैशाख । कस्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि बुधजन' की भाख ।। लघु-धी तथा प्रमादतें, शब्द-अर्थ की भूल ।
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पाओ भव-कूल ।। विक्रम संवत् १८९१ में वैशाख शुक्ल तीज अर्थात् अक्षयतृतीया के दिन बुधजन कवि के छहढाला को देखकर अथवा बुद्धिमान लोगों
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