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________________ १३० छहढाला का सार अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये ।। इसके बाद शेष बचे चार अघातिया कर्मों का घात करके एक क्षण में आठवीं पृथ्वी सिद्धशिला पर विराजमान हो गये और आठ कर्मों के नाश से सम्यक्त्व आदि आठ सुगुणों से शोभायमान हो गये और खारे जल से भरे हुये इस अपार संसाररूप सागर से पार होकर सिद्धशिला में पहुँच गये और वहाँ सर्व विकारों और देह से रहित, अरूपी, परम पवित्र और चैतन्यरूप अविनाशी पद को प्राप्त हो गये । उक्त सिद्धदशारूप परिणमित आत्मा की स्थिति का चित्रण करते हुये कविवर लिखते हैं निज माहिं लोक अलोक, गुण- परजाय प्रतिबिम्बित भये । रहि हैं अनन्तानन्त काल यथा तथा शिव परिणये ।। धनि धन्य हैं जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया। तिन ही अनादि भ्रमण पंच प्रकार, तजि वर सुख लिया ।। जब सिद्धदशा प्राप्त हो गई, केवलज्ञान हो गया; तब उनके उस केवलज्ञान में अलोकाकाश सहित लोक के छह प्रकार के अनन्त द्रव्य और उनमें से प्रत्येक द्रव्य के अनन्त गुण और अनन्तानन्त पर्यायें एक साथ प्रतिबिम्बित हो गईं। इसप्रकार सिद्धदशारूप परिणमित सिद्ध भगवान अनन्तानन्त काल तक इसीप्रकार परिणमित होते रहेंगे। जब उनके केवलज्ञान में सभी द्रव्य अपने गुण और उनकी भूतकालीन, वर्तमान और भविष्य में होनेवाली सभी पर्यायें झलक गईं, ज्ञात हो गईं तो फिर वे सभी पर्यायें सुनिश्चित भी होना चाहिये । जिसप्रकार भूतकालीन पर्यायों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार भविष्य में होनेवाली पर्यायों में भी किसी भी प्रकार का (66) सातवाँ प्रवचन परिवर्तन संभव नहीं । यदि इस विषय में विशेष जानने की इच्छा हो तो लेखक की अन्य कृति 'क्रमबद्धपर्याय' का अध्ययन किया जाना चाहिये । १३१ जो कहानी 'काल अनन्त निगोद मंझार' से आरंभ हुई थी; वह कहानी अब 'रहिहैं अनन्तानन्त काल' पर समाप्त हो रही है। वास्तव में देखा जाय तो यह कहानी तो अनादि-अनन्त है; न तो कभी आरंभ हुई थी और न कभी इसका अन्त होगा; क्योंकि कहानी का नायक भगवान आत्मा अनादि-अनन्त है। फिर भी यह कहानी निगोद में लगभग एक-सी ही चली और मोक्ष में भी सदा एक-सी ही चलेगी; अतः कहने की दृष्टि से तो कहानी समाप्त ही हो गई; क्योंकि कुछ नया-नया परिवर्तन होता है तो कहानी कहने में आती है, अब कुछ नया नहीं होना है; इसलिये ऐसा लगता है कि कहानी का अन्त हो गया है; क्योंकि अब वे सिद्ध भगवान तो अनन्त काल तक इसी प्रकार अनन्त सुख भोगते रहेंगे । इस छन्द की अन्तिम दो पंक्तियों में कवि उन लोगों को धन्यवाद दे रहे हैं कि जिन लोगों ने यह महान कार्य सम्पन्न कर लिया है। वे कहते हैं कि वे जीव धन्य हैं, धन्य हैं कि जिन्होंने मनुष्य गति और उसमें पुरुषपर्याय प्राप्त करके सिद्धदशा प्राप्त करने का यह महान कार्य सम्पन्न कर लिया है; उन्होंने ही पंचपरावर्तनरूप अनादिकालीन भ्रमण को तजकर उत्कृष्ट सुख प्राप्त किया है। इसके बाद शीघ्रातिशीघ्र आत्महित की प्रेरणा देते हुये कविवर दौलतरामजी लिखते हैं मुख्योपचार दुभेद यों, बड़भागि रत्नत्रय धरें । अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश जल जग-मल हरें ।। इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह सिख आदरौ।
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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