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________________ १२८ छहढाला का सार सातवाँ प्रवचन आवश्यक और परमावश्यक कार्य कब किये जायें ? जो भी हो, पर वस्तुस्थिति तो जो है, सो है; उसमें क्या किया जा सकता है ? यद्यपि शुभभाव भी मुनिराजों के जीवन में होते हैं, हो भी सकते हैं; पर उनके जीवन में उक्त छह आवश्यकरूप शुभभाव ही हो सकते हैं। मन्दिर बनवाने आदि के आरंभजनित भाव भी यद्यपि शुभभाव हैं; पर ये शुभभाव गृहस्थ के तो हो सकते हैं, पर मुनिराजों के नहीं। मुनिराजों के लिये वे कार्य अनावश्यक ही हैं। शुद्धोपयोगरूप स्वरूपाचरण चारित्र की इस दशा का फल बताते हुये कविवर दौलतरामजी लिखते हैं - यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यौ। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यौ ।। तब ही शुक्ल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो । सब लख्यौ केवलज्ञान करि, भविलोक कों शिवमग कह्यौ।। इसप्रकार का चिन्तन करके जो जीव अपने में स्थिर हो गये; उन्होंने जिसप्रकार का आनन्द लिया; उसका कथन करना अशक्य है; क्योंकि इसप्रकार का आनन्द इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र (चक्रवर्ती) और अहमिन्द्रों को भी प्राप्त नहीं है। यह क्षपकश्रेणी की दशा का वर्णन है; क्योंकि आगे की पंक्तियों में लिखा है कि उसी समय शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चार घातियाकर्मरूपी जंगल को जला दिया, उसी समय केवलज्ञान हो गया और केवलज्ञान के द्वारा सबकुछ देख लिया गया, जान लिया गया। उसके बाद भव्यजीवों को मुक्तिमार्ग का उपदेश दिया। इसप्रकार हम देखते हैं कि यह ७वें गुणस्थान से १३वें गुणस्थान तक का विवेचन है; क्योंकि क्षपक श्रेणी का आरोहण ७वें गुणस्थान में होता है और दिव्यध्वनि १३वें गुणस्थान में खिरती है। ____ यह शुद्धोपयोगरूप स्वरूपाचरण चारित्र का विवेचन है; जिसके फल में चार घातियाँ कर्मों का अभाव होकर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त अरहंत अवस्था प्राप्त होती है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि इन्द्र, अहमिन्द्र और चक्रवर्ती भी तो सम्यग्दृष्टी होते हैं; उन्हें भी अनुभवजन्य अतीन्द्रिय सुख प्राप्त है; अत: यह कहना कि - यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यौ।। कहाँ तक उचित है ? इसका सीधा सहज उत्तर यह है कि यहाँ सातवें गुणस्थान के ऊपर की बात चल रही है और इन्द्र, नरेन्द्र, अहमिन्द्र चौथे गुणस्थान में होते हैं। सातवें गुणस्थान के ऊपर जैसा व जितना आनन्द प्राप्त है; वैसा और उतना चौथे गुणस्थानवाले इन्द्रादिक को नहीं है। ___ यहाँ कोई कह सकता है कि चक्रवर्ती भी दीक्षा लेकर मुनिराज बन सकते हैं और श्रेणी भी चढ़ सकते हैं; अत: उन्हें भी इसप्रकार का आनन्द नहीं हो सकता - यह कैसे कहा जा सकता है ? उससे कहते हैं कि जब चक्रवर्ती दीक्षा ले लेंगे, तब वे मुनिराज हो जायेंगे, चक्रवर्ती नहीं रहेंगे; क्योंकि चक्रवर्तित्व छोड़े बिना कोई मुनिराज बन ही नहीं सकता; पर अभी तो वे चौथे गुणस्थान में ही हैं। इसके बाद सिद्धदशा का स्वरूप स्पष्ट करते हुये कविवर लिखते हैं - पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिन माहिं अष्टम भू बसैं । वसु कर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं ।। संसार खार अपार, पारावार तरि तीरहिं गये । (65)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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