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छहढाला का सार
१२० जिनमें कुछ इसप्रकार हैं
तप तपैं द्वादश, धरै वृष दश, रतनत्रय से सदा। मनि साथ में वा एक विचरै. चहँ नहिं भव-सख कदा।। यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब । जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब ।।
वे मुनिराज अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश - ये ६ बाह्य तप और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान - ये ६ अंतरंग तप - इसप्रकार कुल मिलाकर १२ तपों को तपते हैं।
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य - इन १० धर्मों को धारण करते हैं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का सेवन करते हैं।
यदि १० धर्मों और १२ तपों के बारे में विशेष जानने की इच्छा हो तो लेखक की अन्य कृति 'धर्म के दशलक्षण' का स्वाध्याय करना चाहिये; क्योंकि उसमें १० धर्मों की चर्चा तो बहुत विस्तार से लगभग २०० पृष्ठों में है ही, साथ में उत्तम तपधर्म के सन्दर्भ में १२ तपों की चर्चा भी १९ पृष्ठों में है।
वे मुनिराज या तो मुनिसंघ में रहते हैं या अकेले ही विहार करते रहते हैं और संसार के सुखों को वे कभी भी नहीं चाहते।
इसप्रकार यह सकलसंयम चारित्र है और अब स्वरूपाचरण चारित्र के संबंध में चर्चा करते हैं। हे भव्यजीवो! तुम उसे ध्यान से सुनो।
उसके होने पर अपनी निधि प्रगट हो जाती है और परसंबंधी समस्त प्रवृत्तियाँ मिट जाती हैं, विलय को प्राप्त हो जाती हैं।
इसप्रकार छठवीं ढाल के पूर्वार्द्ध में समागत सकलचारित्र की चर्चा से विराम लेते हैं। अब स्वरूपाचरण चारित्र की चर्चा करेंगे।
सातवाँ प्रवचन तीन भुवन में सार, वीतराग-विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार, नमहूँ त्रियोग सम्हारिकै।। छहढाला की छठवीं ढाल में प्रतिपादित मुनिधर्म के स्वरूप की चर्चा चल रही है। उसमें सकल संयम की बात हुई; अब स्वरूपाचरण चारित्र की बात आरंभ करते हैं।
यदि अपने स्वरूप में आचरण का नाम ही स्वरूपाचरण है तो फिर सबसे पहले अपने स्वरूप को समझना होगा।
भगवान आत्मा का वास्तविक स्वरूप पर से भिन्न, पर्याय से भिन्न और गुणभेद से भी भिन्न अभेद अखण्ड ज्ञानानन्द स्वभाव ही है। इसलिये उसे जानकर, उसमें ही अपनापन स्थापित कर, उसमें ही जम जाना, रम जाना, समा जाना स्वरूपाचरण चारित्र है।
यद्यपि स्वरूपाचरण चौथे गुणस्थान से ही आरंभ हो जाता है; तथापि यहाँ प्रसंग मुनिधर्म का है; इसलिये यहाँ सकल संयम के साथ रहनेवाले स्वरूपाचरण की ही बात करते हैं।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय चौकड़ी के चले जाने से जो निर्मल परिणति उत्पन्न होती है; उसे मुनिराजों की शुद्ध परिणति कहते हैं और उक्त शुद्ध परिणतिपूर्वक जब उपयोग भी अन्तर्मुख होता है तो उसे शुद्धोपयोग कहते हैं।
इसप्रकार जब परिणति और उपयोग दोनों ही शुद्ध होते हैं; तब जो स्थिति बनती है, उस स्थिति का नाम ही स्वरूपाचरण चारित्र है। वह
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नका चचा करगा