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छहढाला का सार
छठा प्रवचन
दिगम्बर वीतरागी भगवान को भी हम सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात से सजाने लगे हैं। यदि दिगम्बर लोग उनके तन पर कोई गहना-कपड़ा नहीं सजा सकते तो वे उनके परिकर को सजावेंगे। छत्र-चँवरों के माध्यम से उन्हें जगमगा देंगे। जिन्हें तुच्छ जानकर वे त्याग कर आये हैं, उन्हीं को उनके चारों ओर सजावेंगे।
रागियों की प्रवृत्तियाँ रागमय ही होती हैं, वैरागी और वीतरागी मुनिराजों को वे वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ कैसे सुहा सकती हैं ? यह रहस्य है उनके करपात्री होने का।
यह तो आप जानते ही हैं कि मुनिराज जब आहार लेकर वापिस लौटते हैं तो उन्हें आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित होकर चर्या के काल में मन-वचन-काय की क्रिया में कुछ दोष लग गया हो, तो वह सब भी बताकर प्रायश्चित लेना होता है।
भोजन की चर्या के बाद ही यह सब क्यों ?
इसलिए कि आहार के काल में गृहस्थों के समागम की अनिवार्यता है और उनके समागम में दोष होने की संभावना भी अधिक रहती है।
इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि गृहस्थों का समागम साधुओं के लिये कितना खतरनाक है ? इसी की विशुद्धि के लिये यह नियम रखा गया है कि आहारचर्या के बाद साधु आचार्यश्री के पास जाकर सब-कुछ निवेदन करें और उनके आदेशानुसार प्रायश्चित करें।
इस बात को ध्यान में रखकर वीतरागी साधुओं को गृहस्थों के समागम से बचने का पूरा-पूरा यत्न करना चाहिये । गृहस्थों का भी यह कर्तव्य है कि वे भी मुनिराजों को जगत के प्रपंचों में न उलझावें। ____ यदि उन्हें उनका सत्समागम मिल जाता है तो उनसे वीतरागी चर्चा ही करना चाहिये, तत्त्वज्ञान समझने का ही प्रयास करना चाहिये।
मुनिराज उद्दिष्ट आहार के त्यागी होते हैं। उनकी वृत्ति को मधुकरी
वृत्ति कहा गया है। जिसप्रकार भौंरा या मधुमक्खी जिन फूलों से मधु ग्रहण करती है, रस ग्रहण करती है; वह उसे रंचमात्र भी क्षति न हो जावे - इस बात का ध्यान रखती है। वे पुष्प का रस लेते समय इतना ध्यान रखते हैं कि उस पर अपना वजन भी नहीं डालते, भिनभिनाते रहते हैं, उड़ते रहते हैं और अत्यन्त बारीक अपने डंक से इसप्रकार रस चूसते हैं कि पुष्प का आकार भी नहीं बिगड़ता, वह एकदम जैसा का तैसा बना रहता है। उसीप्रकार मुनिराज भी, जिसके यहाँ आहार लेते हैं, उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुँचे, ऐसा नहीं होने देते। अत: उनके उद्देश्य से बनाये गये आहार को ग्रहण नहीं करते । गृहस्थ ने जो आहार स्वयं के लिये बनाया, उसमें से ही वह मुनिराज के लिये देवे, वही ग्रहण करते हैं। मुनिराजों के उद्देश्य से बनाये गये आहार में जो आरंभी हिंसा होती है, उसका भागी मुनिराज को बनना होगा; इसकारण मुनिराज नहीं चाहते कि कोई उनके उद्देश्य से आहार बनावे । यही कारण है कि वे उद्दिष्ट आहार के त्यागी होते हैं।" - इसके बाद मुनिराजों की वृत्ति और प्रवृत्ति का चित्रण इसप्रकार किया गया है -
अरि-मित्र महल-मसान, कंचन-कांच निंदनथति कर न ।
अर्घावतारन असि-प्रहारन में, सदा समता धरन ।। मुनिराजों की वृत्ति और प्रवृत्ति प्रत्येक परिस्थिति में समताभावरूप ही रहती है। वे मुनिराज शत्रु के साथ द्वेष और मित्र के साथ राग नहीं करते, महल में राग और मसान (मरघट) में द्वेष नहीं रखते, कंचन और काँच में भी भेद नहीं रखते। इसीप्रकार भगवान समझकर अर्घ्य चढ़ानेवाले और शत्रु समझकर तलवार का प्रहार करनेवालों पर भी राग-द्वेष नहीं रखते, साम्यभाव ही रखते हैं।
न केवल यही, मुनिराजों की और भी अनेक विशेषतायें होती हैं; १. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ : ५८-६२
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