SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ छहढाला का सार सातवाँ प्रवचन सातवें गुणस्थान में और उसके आगे होता है। किन्तु जब उपयोग बहिर्मुख हो जाता है, पर तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धता कायम रहती है; उस समय जिसप्रकार के शुभभाव और शुभाचरण होता है; उस शुभभाव और शुभाचरण का नाम व्यवहारचारित्र या सकलसंयम है। बाह्य में २८ मूलगुणों के पालने की भावनारूप शुभभाव और २८ मूलगुणों के पालनरूप आचरण व्यवहारचारित्र है और इसी समय जो तीन कषाय के अभावरूप निर्मल परिणति है; उसमें भी उन व्रतों को निश्चय से घटित किया जा सकता है। स्वरूपाचरण की महिमा बताते हुये विगत छन्द में कहा था कि - जिस होत प्रगटे आपनी निधि, मिटे पर की प्रवृत्ति सब। पर के लक्ष्य से अपने में उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्ति ही परप्रवृत्ति है और अपना आत्मस्वभाव ही अपनी निधि है। स्वरूपाचरणचारित्र के होने पर पर के लक्ष्य से अपने में होनेवाली परप्रवृत्ति नष्ट हो जाती है और आत्मस्वभाव प्रगट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपनी निधि तो अपने में ही है; उसे कहीं बाहर से नहीं लाना है। उसे लाना नहीं है, प्रगट करना है। उस आत्मस्वभाव रूप निधि को जानना ही उस निधि को पाना है, प्रगट करना है। उक्त स्वरूपाचरण चारित्र से ही परप्रवृत्ति मिटकर अपने आत्मस्वभाव को जाननेरूप निधि प्रगट हो जाती है। इसप्रकार पर से निवृत्ति और स्व में प्रवृत्ति ही स्वरूपाचरण चारित्र है। जिस स्वरूपाचरण चारित्र के होने पर पर की प्रवृत्ति मिट जाती है और अपनी निधि प्रगट हो जाती है; अब उस शुद्धोपयोगरूप स्वरूपाचरण चारित्र की बात करते हैं - जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया। वरणादि अरु रागादि तें, निज भाव को न्यारा किया। निज माहिं निज के हेतु, निज कर आपको आपै गह्यौ। गुण-गुणी ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यौ।। जहँ ध्यान-ध्याता-ध्येयको, न विकल्पवच-भेदन जहाँ। चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ ।। तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दसा। प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत, ये तीनधा एकै लसा ।। परमाण-नय-निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै। द्रग-ज्ञान-सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जुमो विषै ।। मैं साध्य-साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनि तैं। चित्पिण्डचण्डअखण्डसुगुणकरण्ड, च्युति पुनिकलनि ।। जिन्होंने अत्यन्त तीक्ष्ण सबद्धिरूपी छैनी को अन्तर में डालकर वर्णादि परपदार्थों और रागादि विकारी भावों को भेद कर इनसे निज भगवान आत्मा को न्यारा किया अर्थात् न्यारा जानकर अपने में ही, अपने लिये, अपने द्वारा, अपने को, अपने आप ग्रहण कर लिया; तब गुण-गुणी में तथा ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय में कुछ भी अन्तर नहीं रहा। उस स्वरूपाचरण चारित्र अर्थात् शुद्धोपयोग की निश्चल दशा में ध्यान-ध्याता और ध्येय का भेदरूप विकल्प नहीं रहता, वचन का विकल्प भी नहीं रहता । वहाँ कर्ता, कर्म और क्रिया का भेद भी नहीं रहता; क्योंकि चिद्भाव ही कर्म है, चिदेश कर्ता है और चेतना क्रिया है - इसप्रकार ये तीनों अभिन्न हैं, अखिन्न हैं अर्थात् खेद से रहित हैं। __ शुद्धोपयोग में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की ऐसी दशा प्रगट हुई कि जिसमें ये दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीन होकर भी एकरूप में ही शोभायमान हो रहे हैं। अनुभव अर्थात् शुद्धोपयोग के काल में प्रमाण, नय और निक्षेपों का उद्योत भी नहीं होता । अनुभव में तो ऐसा भासित होता है कि मैं तो (62)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy