________________
१०८
छहढाला का सार
कहाँ-कहाँ होते हैं; वे उनकी हिंसा से कैसे बच सकते हैं और अपनी वाणी से तत्संबंधी सत्य का उद्घाटन भी कैसे कर सकते हैं ?
तात्पर्य यह है कि वे उक्त सन्दर्भ में सत्य भी नहीं बोल सकते । पाँच समितियों में उनका चार हाथ जमीन देखकर चलना, हितमित- प्रिय वचन बोलना, ४६ दोष टालकर निरन्तराय आहार लेना, पछी - कमंडलु और शास्त्रों को अच्छी तरह देखकर सावधानी से उठानारखना और निर्जन्तु भूमि देखकर मल-मूत्र क्षेपण करना भी जीवों की रक्षा की भावना से ही होता है।
एक भाई हमसे बोले कि पुराने जमाने में मुनिराज सवारी का त्याग इसलिये करते थे कि तब सवारी के काम में पशु आते थे और उन पर सवारी करने से उन्हें तकलीफ होती थी; पर आज तो सबकुछ पेट्रोल से चलता है; अतः अब उन्हें सवारी से परहेज नहीं करना चाहिये ।
हमने उनसे कहा कि यह बात नहीं है। भाई ! मुनिराज चार हाथ जमीन देखकर चलते हैं। तो क्या हाथी, घोड़े और बैल भी ईर्यासमितिपूर्वक चार हाथ जमीन देखकर चलेंगे ? क्या आज की मोटरगाड़ियाँ भी चार हाथ जमीन देखकर चलती हैं ? अतः व्यर्थ के कुतर्क से कोई लाभ नहीं है।
मुनिराजों का रक्षा का भाव भी यहीं तक सीमित है कि उनके निमित्त से किसी का घात न हो जाय, किसी को पीड़ा न पहुँचे; दूसरे से दूसरों को बचाना उनका काम नहीं है। यह तो आपको मालूम ही है कि दूसरों को दूसरों से बचाने के तीव्रतम भाव के कारण मुनिराज विष्णुकुमार को मुनिपद छोड़ना पड़ा था। उनकी दीक्षा भंग हो गई थी और उन्हें दुबारा दीक्षा लेनी पड़ी थी; जिससे उनकी वरिष्ठता भी प्रभावित हुई थी।
इस सन्दर्भ में विशेष जानने की इच्छा हो तो लेखक की अन्य कृति 'रक्षाबंधन और दीपावली' नामक पुस्तक को पढ़ना चाहिये।
(55)
छठा प्रवचन
१०९
अधिकांशतः महान सन्त वनवासी होते हैं, जंगल में रहते हैं और जंगलों में तो जंगलराज ही होता है। जंगल में उनकी आँखों के सामने ही एक मांसाहारी जानवर शाकाहारी जानवर का शिकार कर रहा हो तो क्या वे उसे बचाने के लिये मांसाहारी को रोकेंगे ? रोकेंगे तो कैसे रोकेंगे; क्योंकि आसानी से तो वह रुकनेवाला है नहीं ।
यदि वह इसप्रकार आसानी से रुक जाय तो उसे भूखा रहना पड़ेगा, भूखा मरना पड़ेगा। उसे रोकने के लिये क्या वे उसे पीटेंगे, मारेंगे ?
यदि हाँ; तो वे मुनिराज भी हिंसक हो जायेंगे। बिना हथियारों के, बिना जोखम उठाये यह सब होगा भी कैसे ? बात एक दिन की और एक जीव की तो है नहीं; जंगल में तो यह सब प्रतिदिन होता है। यदि आत्मार्थी मुनिराज इसमें उलझेंगे तो फिर वे आत्मा का ध्यान कब करेंगे ?
एक जानवर को एक बार बचा लिया तो उसे निरन्तर कैसे बचाये रखेंगे ? क्या वे उसका पालन-पोषण भी करेंगे ? यदि हाँ; तो फिर तो पूरा ताम-झाम खड़ा हो जायेगा। जिस उलझन को छोड़कर आये हैं; उसी में और अधिक गहराई से उलझ जायेंगे ।
यह काम तो राजा-महाराजाओं से भी नहीं हो सकता, चक्रवर्तियों से भी नहीं हो सकता; क्योंकि यदि हो सकता होता तो उनके राज्य में में आनेवाले जंगलों में एक जीव दूसरे को मारकर नहीं खा सकता था।
यह एक असंभव सा कार्य है। अतः मुनिराजों की करुणा या रक्षा करने का भाव यहीं तक सीमित है कि उनके द्वारा या उनके निमित्त से किसी जीव का घात न हो, किसी जीव को पीड़ा न पहुँचे । इसीलिये ये पंच महाव्रत और पाँच समितियाँ हैं; जिनका पालन वे सावधानीपूर्वक करते हैं।
मुनिराज १४ प्रकार के अंतरंग और १० प्रकार के बहिरंग परिग्रह के त्यागी होते हैं। जब उन्होंने तन का वस्त्र भी छोड़ दिया तो फिर वे