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________________ ११० छहढाला का सार छठा प्रवचन धर्म के नाम पर ही सही, गृहस्थों के करने योग्य भवन निर्माण आदि कार्यों में कैसे उलझ सकते हैं ? क्या ये कार्य बिना हिंसा के संभव हैं ? ___अरे भाई ! इन कार्यों को करना-कराना तो बहुत दूर की बात है; उनके द्वारा तो इनकी अनुमोदना भी नहीं हो सकती। गृहत्यागी गृहस्थ भी जब ये कार्य नहीं कर सकता तो फिर मुनिराजों की तो बात ही अलग है। वे तो चलते-फिरते सिद्ध हैं; उनकी वृत्ति तो अलौकिक होती है। ___ मेरे एक शिष्य ब्रह्मचारी हैं, गृहत्यागी हैं। उन्होंने एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट अपने हाथों में ले लिया और उसके प्रति समर्पित हो गये। उक्त परिसर में मंदिर के साथ-साथ शताधिक कमरे भी बन गये थे। मंदिर की गुम्मद का काम चल रहा था और मैं वहाँ से अचानक पास हुआ तो उसे देखने चला गया। ____ मैंने बहुत मना किया कि मैं हृदयरोगी हूँ; अत: ऊपर तक नहीं जा सकता; पर वे कब माननेवाले थे। मजदूरों से उठवाकर वे मुझे ऊपर ले गये और वहाँ बताया कि यह इतने फीट ऊँचा गुम्मद है। यहाँ से १०१५ किलोमीटर तक आसानी से देखा जा सकता है। वे अत्यन्त उत्साहित थे और उस गुम्मद की स्तुति इसप्रकार कर रहे थे कि शायद इतने उत्साह से कभी भगवान की भी न की होगी। ___मुझसे उन्हें क्या अपेक्षा थी यह तो वे ही जाने; पर मैंने अत्यन्त गंभीरता के साथ जो कुछ कहा, वह कुछ इसप्रकार था - ___ मैंने कहा - हे भाई ! यदि तुम शादी कर लेते और गृहस्थी में रहते तो शायद सम्पूर्ण जीवन अपने बाप-दादों के मकान में ही गुजार देते। यदि बुढ़ापे में बच्चों की सुविधा के लिये अपना मकान भी बनाते तो वह भी दो कमरों से अधिक का नहीं होता। आज तुम गृहत्यागी ब्रह्मचारी क्या हो गये कि तुम्हें दो सौ कमरे १११ कम पड़ते हैं। वे भी एक गाँव में नहीं, गाँव-गाँव में । क्या हो गया है तुम्हें? हमने तो ऐसा कुछ नहीं पढ़ाया था। आज लोग हमसे पूंछते हैं कि ये आपके शिष्य हैं। क्या आपने यही पढ़ाया है ? तो शर्म के मारे माथा झुक जाता है। तब वे तपाक से बोले - सारी समाज में यही चल रहा है। हम तो गृहस्थ हैं; पर ........। मैंने उन्हें यहीं पर रोक दिया और कहा मुझे इससे आगे कुछ नहीं सुनना है। तुम हमारे छात्र हो, तत्त्वाभ्यासी हो, आत्मकल्याण की भावना से घर-बार छोड़ चुके हो; इसलिये तुम से कुछ कहने का विकल्प आता है। अन्यथा हमें किसी से क्या लेना-देना ? इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं जिनमन्दिरों और धर्मशाला आदि के निर्माण का विरोधी हूँ; मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि यह काम गृहस्थों के हैं; गृहत्यागियों के नहीं। हम जैसे उन विद्वानों के भी नहीं, जो जिनवाणी माँ की सेवा कर सकते हों, आत्मार्थियों को जैन तत्त्वज्ञान की शिक्षा दे सकते हों। ___ कुछ लोग कहते हैं कि आपने यह बात सबके सामने क्यों कही, पुस्तक में क्यों लिखी; यदि आपको अधिक विकल्प था तो अकेले में भी तो कह सकते थे। ___अरे भाई ! अकेले में ही तो कहा था; पर कहीं कोई असर दिखाई नहीं दिया; इसलिए सार्वजनिक बोल रहे हैं और लिख भी रहे हैं। जब कहने से कुछ नहीं हुआ तो सभा में बोलने से भी क्या होगा, लिखने से भी क्या होगा? इतना तो होगा ही कि जब भविष्य में उक्त प्रवृत्तियों की समीक्षा होगी तो कम से कम उक्त प्रवृत्तियों के कर्ता-धर्ता के रूप में हमारा नाम तो नहीं जुड़ेगा। (56)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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