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छहठाला का सार
छठा प्रवचन
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१०६ सन्तों का बोलना भी अनिवार्य है, अन्यथा मुक्ति के मार्ग का लोप हो जावेगा। देशनालब्धि की उपलब्धि रहे - इस भावना से बोले गये वचन आत्महितकारी होना चाहिये। यहाँ हित का अर्थ लौकिक हित नहीं लेना, अपितु आत्महितकारी तत्त्व प्रतिपादन ही है। ___ तात्पर्य यह है कि मुनिराज यदि बोलते हैं तो उन्हें मात्र आत्महितकारी तत्त्व प्रतिपादन ही करना चाहिये । वह भी दिनभर नहीं; सीमित बोलना श्रेष्ठ है। सीमित तत्त्व प्रतिपादन भी प्रिय भाषा में ही होना चाहिये, कठोर भाषा में नहीं।
हित-मित-प्रिय के साथ-साथ वह तत्त्व प्रतिपादन सत्य भी होना चाहिये। सत्य को समझे बिना सत्य बोलना संभव नहीं है; इसलिये पहले सत्य समझना चाहिये । इसप्रकार सत्य समझना सत्यधर्म है, सत्य बोलना सत्य महाव्रत है, हित-मित-प्रिय बोलना भाषा समिति है और कुछ भी नहीं बोलना वचनगुप्ति है। ___ शरीर के पोषण के लिए नहीं; अपितु तप की वृद्धि के लिए मुनिराजों का उच्च कुल के श्रावक के घर में दाता के आश्रित १६ उद्गमादि दोष, पात्र के आश्रित १६ उत्पादन दोष तथा आहार संबंधी १० और भोजनक्रिया संबंधी ४ दोष - इसप्रकार कुल मिलाकर ४६ दोष टालकर नीरस आहार लेना ऐषणासमिति है और ज्ञान का उपकरण शास्त्र, संयम का उपकरण पीछी और शौच का उपकरण कमण्डलु को अच्छी तरह देखकर उठाना-रखना आदाननिक्षेपण समिति है।
वे मुनिराज मल-मूत्र और कफ आदि का क्षेपण भी निर्जन्तु स्थान देखकर ही करते हैं। उनके इस आचरण को प्रतिष्ठापना समिति कहते हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि ये पाँचों महाव्रत और पाँचों समितियाँ द्रव्यहिंसा और भावहिंसा से बचने के साधन हैं।
द्रव्यहिंसा के त्याग के लिए यह जानना जरूरी है कि जिन जीवों का घात हमसे होने की संभावना है; वे कहाँ-कहाँ रहते हैं, किन-किन शरीरों में रहते हैं ? स्थूल रूप से तो हम भी यह निर्णय कर सकते हैं; किन्तु सूक्ष्मता से इस बात को जानने के लिए सर्वज्ञ भगवान की दिव्यध्वनि के अनुसार लिखी गई जिनवाणी ही एकमात्र शरण है।
अत: उक्त सन्दर्भ में जिनवाणी में श्रावकों या मुनिराजों के लिए आचरण और व्यवहारसंबंधी कुछ मर्यादायें, कुछ नियम-उपनियम बताये गये हैं; उन मर्यादाओं और नियम-उपनियमों का विधिवत पालन करने से अहिंसा धर्म का भलीभाँति पालन होता है।
आलू आदि जमीकन्दों में अनन्त निगोदिया जीव होते हैं - इस बात का निर्णय हम अपनी आँखों से देखकर नहीं कर सकते। यह बात हमें जिनवाणी के स्वाध्याय से ही ज्ञात होती है। इसलिये हमारा कर्तव्य है कि जिनवाणी में जिन्हें अभक्ष्य कहा गया है, अनुपसेव्य कहा गया है; उनका सेवन हमें नहीं करना चाहिये। जिनवाणी में भूमिकानुसार जो आचरण करने योग्य कहा है, वह करे और जिसका निषेध किया गया है, वह न करें। यही मार्ग, शेष सब उन्मार्ग है। उक्त सन्दर्भ में अपनी बुद्धि से कल्पनालोक में विचरण करने से कोई लाभ नहीं है।
आचार्य कुन्दकुन्दकृत प्रवचनसार ग्रंथ में मुनिराजों को आगमचक्षु कहा गया है। तात्पर्य यह है कि मुनिराज अपने आचरण और व्यवहार को आगम के आधार पर सुनिश्चित करते हैं। इसलिये हमारा कर्तव्य है कि श्रावकों और मुनिराजों के आचरण और व्यवहार को आगम की कसौटी पर कसें, परखें; अपनी काल्पनिक मान्यताओं के आधार पर नहीं।
आगम का अभ्यास न होने से जिन्हें पता ही नहीं है कि जीव
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