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छहढाला का सार
छठा प्रवचन
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हड़बड़ाकर डरते देखा जा सकता है। क्या वे यह अनुभव करते हैं कि यह सब परिग्रह हैं ?
जयपुर में लोग भगवान की मूर्तियाँ लेने आते हैं और मुझसे कहते हैं कि हमें तो बहुत सुन्दर मूर्ति चाहिये, एकदम हँसमुख । मैं उन्हें समझाता हूँ कि भाई ! भगवान की मूर्ति हँसमुख नहीं होती। हास्य तो कषाय है, परिग्रह है और भगवान तो अकषायी, अपरिग्रही हैं; उनकी मूर्ति हँसमुख कैसे हो सकती है ? भगवान की मूर्ति की मुद्रा तो वीतरागी शान्त होती है। कहा भी है - "जय परमशान्त मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेत ।'
___ छवि नग्न मुद्रा, दृष्टि नासा पर धरै ।।" यह भी बहुत कम लोग जानते हैं कि सब पापों का बाप लोभ भी एक परिग्रह है। शब्दों में जानते भी हों तो यह अनुभव नहीं करते कि लोभ भी एक परिग्रह है, अन्यथा यश के लोभ में दौड़-धूप करते तथाकथित परिग्रह-त्यागी दिखाई नहीं देते। ____ घोर पापों की जड़ मिथ्यात्व भी एक परिग्रह है; एक नहीं, नम्बर एक का परिग्रह है, जिसके छूटे बिना अन्य परिग्रह छूट ही नहीं सकते - इस ओर भी कितनों का ध्यान है ? होता तो मिथ्यात्व का अभाव किये बिना ही अपरिग्रही बनने के यत्न नहीं किये जाते।
इसप्रकार ये पाँच महाव्रत हैं और ईर्यासमिति, भाषासमिति, ऐषणा समिति, आदाननिक्षेपणसमिति और प्रतिष्ठापनासमिति - ये पाँच समितियाँ हैं।
सकलचारित्र के धारी महाव्रती मुनिराज द्रव्यहिंसा से बचने के १. पण्डित दौलतरामजी कृत देव-स्तुति २. कविवर बुधजन कृत देव-स्तुति
लिये प्रमाद छोड़कर दिन में चार हाथ तक की जमीन को देखकर सावधानीपूर्वक चलते हैं - यह उनकी ईर्यासमिति है। ___ ईर्यासमिति के धारी मुनिराजों की भावना भी ऐसी नहीं होती कि लोग मेरा स्वागत करने आवें, लम्बा जुलूस निकालें; क्योंकि जो स्वागत करने आयेंगे, जो जुलूस आवेगा; वे सब ईर्यासमितिपूर्वक तो चलेंगे नहीं। इसलिये उनकी अनुमोदना मुनिराज नहीं कर सकते।
उनके विहार के समय बिना बुलाये भी अनेक लोग उनके पीछेपीछे चलने लगते हैं; उनसे भी वे यह नहीं कहते कि अब लौट जाओ; क्योंकि ऐसा कहने का अर्थ यह है कि अभी तक उनका आना मुनिराज को इष्ट था।
लोग उनके पीछे आवे तो आवे, न आवे तो न आवें; उन्हें उनसे कुछ लेना-देना नहीं है। अकेले स्वयं चार हाथ आगे देखकर चलना मात्र ईयासमिति नहीं; अपितु ईर्यासमितिपूर्वक नहीं चलनेवालों को बुलानाभेजना भी ईर्यासमिति में दोष है। ___मुनिराजों का हित-मित-प्रिय बोलना ही भाषासमिति है। भाषासमिति पूर्वक निकले मुनिराजों के वचन जग का हित करनेवाले, अहित हरनेवाले, सभी प्रकार के संशयों को दूर करनेवाले और सुनने में सुखद होते हैं। ऐसे लगता है मानो उनके मुखरूपी चन्द्रमा से अमृत ही झर रहा है।
भाषा हमें पर से जोड़ती है; परन्तु मुनिराजों को तो पर से जुड़ना ही नहीं है; इसलिये यहाँ मुनिधर्म के सन्दर्भ में भाषा को तीन जगह बाँधा है।
यदि हम दूसरों से नहीं जुड़ना चाहते हैं तो उसका सर्वश्रेष्ठ उपाय नहीं बोलना अर्थात् मौन रखना ही है। इसलिये यहाँ कहा गया है कि बोलो ही नहीं तो सब से बढ़िया बात है, वचनगुप्ति है।
यद्यपि मौन सर्वश्रेष्ठ है; तथापि देशनालब्धि की दृष्टि से ज्ञानी
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