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छहढाला का सार
किसी व्यक्तिविशेष के लक्ष्य से कुछ न कहा जाय, अपितु जिनवचनों के अनुसार ही प्रतिपादन हो ।
मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव से उत्पन्न शुद्धपरिणति के धारक सन्तों के सहजभाव से ही २८ मूलगुणों का पालन होता है।
५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण- इसप्रकार मुनिराजों के कुल २८ मूलगुण होते हैं । इनके अतिरिक्त भी ३ गुप्तियाँ, १० धर्म आदि अनेक गुण होते हैं।
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सर्वप्रथम ५ महाव्रतों और ५ समितियों का स्वरूप स्पष्ट करते हुये पण्डित दौलतरामजी लिखते हैं
षट्काय जीव न हनन तैं, सब विधि दरब हिंसा टरी । रागादि भाव निवार तैं, हिंसा न भावित अवतरी ।। जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयौ गहैं । अठ- दश सहस विधिशील धर, चिद्ब्रह्म में नित रमिरहें ।। अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर, संग दशधा तैं टलें । परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्ष्या तैं चलें ॥ जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरें । भ्रम- रोग हर जिनके वचन, मुख चन्द्र तैं अमृत झरें ।। छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को ।
तप बढ़ावन हेतु नहिं तन, पोषते तजि रसन को ।। शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखि कैं गहैं लखि कैं धरें। निर्जन्तु थान विलोकि तन, मल-मूत्र - श्लेषम परिहरें ।।
मुनिराजों के पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकाय इन छह काय के जीवों का घात न होने से किसी भी प्रकार की द्रव्यहिंसा नहीं होती और रागादि भावों के निवारण से भावहिंसा भी उत्पन्न नहीं होती।
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छठा प्रवचन
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प्राणों के घात को द्रव्यहिंसा कहते हैं और मोह-राग-द्वेष भावों को भावहिंसा कहते हैं। अहिंसा महाव्रत के धारी मुनिराजों के अपनी भूमिकानुसार द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार की हिंसा नहीं होती है; इसलिये ये अहिंसा महाव्रत के धारी हैं।
वे मुनिराज रंचमात्र भी झूठ नहीं बोलते और बिना दिये मिट्टी और जल भी ग्रहण नहीं करते; इसलिये सत्य महाव्रत और अचौर्य महाव्रत
के धारी हैं। १८ हजार प्रकार के शील को धारण करनेवाले वे मुनिराज निरन्तर ब्रह्मस्वरूप अपने चेतन आत्मा में रमण करते रहते हैं - यह उनका ब्रह्मचर्य महाव्रत है ।
मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसंकवेद - ये १४ अंतरंग परिग्रह हैं और धन-धान्यादि १० बहिरंग परिग्रह हैं । मुनिराज उक्त चौबीस परिग्रहों से रहित होते हैं यह उनका परिग्रहत्याग महाव्रत है । जब भी परिग्रह या परिग्रहत्याग की चर्चा चलती है - हमारा ध्यान बाह्य परिग्रह की ओर ही जाता है; मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभादि भी परिग्रह हैं - इस ओर कोई ध्यान ही नहीं देता । क्रोध, मान, माया, लोभ की जब भी बात आयेगी तो कहा जायेगा कि ये तो कषायें हैं; पर कषायों का भी परिग्रह होता है - यह विचार नहीं आता ।
जब जगत क्रोध-मानादि कषायों को भी परिग्रह मानने को तैयार नहीं तो फिर हास्यादि कषायों को कौन परिग्रह माने ?
पाँच पापों में परिग्रह एक पाप है और हास्यादि कषायें परिग्रह के भेद हैं। पर जब हम हँसते हैं, शोकसंतप्त होते हैं, तो क्या हम यह समझते हैं कि हम कोई पाप कर रहे हैं या इनके कारण हम परिग्रही हैं ?
बहुत से परिग्रह - त्यागियों को कहीं भी खिलखिलाकर हँसते,