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छहढाला का सार
छठा प्रवचन
अन्तिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनन्त बिरियाँ पद। पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ। जे भावमोह तैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे ।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै ।। यह जीव द्रव्यलिंग धारण करके अनन्त बार अन्तिम ग्रैवेयक तक गया; किन्तु सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं की। इस दुर्लभ सम्यग्ज्ञान को मुनिराज निजात्मा के आश्रय से साधते हैं।
मोह से भिन्न दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप जितने भी निर्मलभाव हैं; वे सभी धर्म हैं। जब यह जीव उक्त धर्म को धारण करता है; तब कभी चलायमान न होनेवाला मोक्ष सुख प्राप्त करता है।
यद्यपि दौलतरामजी के छन्द में ‘पर सम्यग्ज्ञान न लाधो' लिखा है; पर उसका भाव रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हुई - यही है। 'बोध' शब्द का अर्थ होता है ज्ञान और 'बोधि' शब्द का अर्थ होता है रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । भावना का नाम 'बोधदुर्लभ' नहीं; बोधिदुर्लभ है; इसलिये यहाँ सम्यग्ज्ञान शब्द में सम्यग्ज्ञान के अविनाभावी सम्यग्दर्शन और कम से कम अंशरूप सम्यक्चारित्र लेना ही अभीष्ट है।
इसप्रकार इन बारह भावनाओं की चर्चा करने के उपरान्त अन्त में दौलतरामजी लिखते हैं -
सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये। ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी ।। वह रत्नत्रयरूप धर्म मुनियों के द्वारा धारण किया जाता है। अत: अब उनके कर्तृत्त्व की बात करते हैं। हे भव्यप्राणी ! अनुभूतिस्वरूप मुनिधर्म के स्वरूप को तुम ध्यान से सुनो और उसे अपनी अनुभूति से प्रमाणित करो।
इसप्रकार बारह भावनाओं की चर्चा से विराम लेते हैं और अब आगामी ढाल में सकलचारित्र अर्थात् मुनिधर्म के स्वरूप पर विचार करेंगे।
तीन भुवन में सार, वीतराग-विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार, नमहूँ त्रियोग सम्हारिकै।। अब इस छठवीं ढाल में मुनिधर्म का स्वरूप समझाते हैं। यह मुनिधर्म इतना महान है कि इसे धारण किये बिना न तो आजतक कोई अरहंत-सिद्ध पद को प्राप्त हुआ है और न कभी होगा।
एक श्रावक के लिये मुनिधर्म पर चर्चा करना एक ऐसा दुस्तर कार्य है कि जिसे संपन्न करने के लिये अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता है। यह दुस्तर कार्य तो है, पर असंभव नहीं है; क्योंकि जिनवाणी एक ऐसी नौका है कि जिसके सहारे यह कार्य एकदम सही रूप में सरलता से किया जा सकता है।
पण्डित दौलतरामजी इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते थे। इसलिये उन्होंने जिनवचनों से चिपटे रहकर यह महान कार्य पूर्ण निर्भयता के साथ सम्पन्न कर दिखाया है।
मुनिधर्म का स्वरूप स्पष्ट करते समय उनके समक्ष कोई व्यक्ति विशेष नहीं, अपितु जिनवाणी माता थी। किसी व्यक्ति विशेष के लक्ष्य से किये गये कथन में राग-द्वेष की बू आ सकती है; किन्तु जिनवचनों को आधार बनाकर किये गये कथन पूर्णत: निर्दोष होते हैं।
भाग्य की बात है कि उनके प्रत्यक्ष परिचय में कोई मुनिराज नहीं थे; क्योंकि उस समय उनके क्षेत्र में मुनिराजों का समागम ही नहीं था। अत: उन्होंने किसी के लक्ष्य से कुछ कहा होगा - इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मैं भी इस बात का पूरी तरह ध्यान रखूगा कि
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