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________________ छहढाला का सार पाँचवाँ प्रवचन होने के साक्षात् कारण हैं। इसप्रकार ज्ञेयरूप संयोग, हेयरूप आस्रवभाव एवं उपादेयरूप संवर-निर्जरा के सम्यक् चिन्तन के उपरान्त अब लोकभावना में षद्रव्यमयी लोक के स्वरूप पर विचार करते हैं। लोकभावना के सन्दर्भ में छहढाला में कहा गया है कि - किनहू न कस्यो न धरै को, षद्रव्यमयी न हरै को। सो लोक माहिं बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता ।। छह द्रव्यों के समुदायरूप इस लोक को न तो किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किये है और न कोई इसका विनाश ही कर सकता है। इस लोक में यह आत्मा अनादि काल से समताभाव के बिना भ्रमण करता हुआ अनन्त दुःख सह रहा है। कविवर पण्डित भूधरदासजी कृत बारह भावना में लोकभावना संबंधी छन्द इसप्रकार है - चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादि तैं, भरमत है बिन ज्ञान ।। इस पुरुषाकार चौदह राजू उँचे लोक में यह जीव आत्मज्ञान बिना अनादिकाल से ही भ्रमण कर रहा है। उक्त दोनों भावनाओं में नीचे की पंक्ति का भाव तो लगभग समान ही है; क्योंकि दोनों में ही बताया गया है कि जीव अनादि से ही लोक में भ्रमण करता हुआ दुःख भोग रहा है। अन्तर मात्र इतना है कि एक में दुःख का कारण समताभाव का अभाव बताया गया है और दूसरी में सम्यग्ज्ञान का अभाव, पर इसमें कोई विशेष बात नहीं है; किन्तु ऊपर की पंक्ति में जो लोक के स्वरूप का प्रतिपादन है, वह भिन्न-भिन्न है। एक में लोक को स्वनिर्मित, स्वाधीन, अविनाशी और षद्रव्यमयी बताया गया है; तो दूसरी में चौदह राजू ऊँचा पुरुषाकार निरूपित किया गया है। एक ने न्यायशास्त्र को आधार बनाया है तो दूसरे ने करणानुयोग को। इस जगत का कोई कर्ता, धर्त्ता और हर्ता नहीं है - यह न्यायशास्त्र की बात है और पुरुषाकार चौदह राजू ऊँचे लोक का निरूपण करणानुयोग का विषय है। लोकभावना में छह द्रव्यों के समुदायरूप लोक की बात भी चिन्तन का विषय बनती और लोक की भौगोलिक स्थिति भी। लोकभावना की विषय-वस्तु संबंधी उक्त दोनों प्रकारों में से दौलतरामजी ने प्रथम प्रकार को एवं भूधरदासजी ने दूसरे प्रकार को पकड़कर अपनी बात प्रस्तुत कर दी है; पर एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि लोकभावना की जो मूल भावना है, वह दोनों में समान रूप से विद्यमान है। मूल बात लोक के स्वरूप प्रतिपादन की नहीं, सम्यग्ज्ञान और समताभाव बिना जीव के अनादि परिभ्रमण की है; क्योंकि सम्यग्ज्ञान और समताभाव की तीव्रतम रुचि जागृत करना ही इन भावनाओं के चिन्तन का मूल प्रयोजन है। अब बोधिदुर्लभ और धर्मभावना की चर्चा करते हैं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों को रत्नत्रय धर्म कहते हैं और इन तीनों का मिलकर एक नाम बोधि भी है। इसप्रकार बोधि और धर्म शब्द एकार्थवाची ही हैं। इस कारण धर्मभावना को बोधि भावना भी कह सकते हैं और बोधिदुर्लभ भावना को धर्मदुर्लभ भावना भी कह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि बोधिदुर्लभ भावना में रत्नत्रयरूप धर्म की दुर्लभता बताई गई है और धर्मभावना में रत्नधर्म की आराधना की बात कही गई है। छहढाला में दोनों भावनाओं का स्वरूप इसप्रकार दिया गया है - (50)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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