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________________ छहढाला का सार दूसरी ढाल में आस्रव और बंधतत्त्वसंबंधी भूल के प्रकरण में इस बात पर विस्तार से प्रकाश डाला जा चुका है; अत: यहाँ विशेष विस्तार की आवश्यकता नहीं है। संयोग और संयोगी भावों संबंधी भावनाओं की चर्चा विस्तार से हुई; अब असंयोगी निर्मलभावरूप संवर-निर्जरा भावना की चर्चा करते हैं। संवर भावना का स्वरूप छहढाला में अत्यन्त मार्मिक रूप से इसप्रकार प्रस्तुत किया गया है - जिन पुण्य-पाप नहिं कीना आतम अनुभव चित दीना। तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।। जिन्होंने पुण्य-पापरूप आस्रवभावों को न करके आत्मा के अनुभव में चित्त को लगाया है; उन्होंने ही आते हुये द्रव्यकर्मों को रोक दिया है। इसप्रकार द्रव्यास्रव और भावास्रव के अभावपूर्वक जिन्होंने द्रव्यसंवर और भावसंवर प्राप्त कर लिया है; उन्होंने ही सुख प्राप्त किया है। ध्यान रहे उक्त छन्द में आत्मानुभव को ही संवर कहा है। इसप्रकार आत्मानुभव या आत्मानुभव की भावना ही संवर भावना है। छहढाला में निर्जराभावना संबंधी छन्द इसप्रकार है - निज काल पाय विधि झरना, तासोनिज काजन सरना। तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ।। समय आने पर जो कर्म झड़ते हैं, उससे आत्महित का कार्य सिद्ध नहीं होता। शुद्धपरिणति और शुद्धोपयोगरूप ध्यान तप से जो कर्म कटते हैं; उससे ही मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। ___ मूलतः बात यह है कि जो कर्म बंधे हैं, वे अपनी स्थिति के अनुसार सत्ता में रहते हैं; किन्तु जब उदय काल आता है तो उदय में आकर, फल देकर खिर जाते हैं। शास्त्रों में इस खिरने को भी निर्जरा शब्द से कहा गया है; इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। इसप्रकार की निर्जरा से आत्मा को कोई लाभ नहीं है; क्योंकि पाँचवाँ प्रवचन मोहकर्म के उदय में जो मोह-राग-द्वेषभाव होते हैं; उनसे उक्त निर्जराकाल में भी नवीन कर्मबंध होता है। वह निर्जरा किस काम की, जिसके साथ कर्मबंध की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। निर्जरा तो वही वास्तविक है, काम की है कि जिसमें कर्मों के झड़ने के साथ आगामी कर्मबंध न हो। संवर-निर्जरा भावना में मोक्ष की भावना को भी सामिल कर लेना चाहिये; क्योंकि मोक्ष भावना नाम की कोई भावना नहीं है। ___धर्म की उत्पत्ति संवर है, धर्म की वृद्धि निर्जरा है और धर्म की पूर्णत: मोक्ष है। वस्तुत: आत्मशुद्धि ही धर्म है। अत: इसे इसप्रकार भी कह सकते हैं कि शुद्धि की उत्पत्ति संवर है, शुद्धि की वृद्धि निर्जरा है और शुद्धि की पूर्णता मोक्ष है। संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, अशुचि हैं, सुख-दुःख में साथ देनेवाले नहीं हैं; क्योंकि वे अपने आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं।' आरंभिक छह भावनाओं में संयोगों के संदर्भ में इसप्रकार का चिन्तन करने के उपरान्त सातवीं आस्रवभावना में 'संयोग के लक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले संयोगीभाव - चिद्विकार - मोह-रागद्वेषरूप आस्रवभाव भी अनित्य हैं, अशरण हैं, अशुचि हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के कारण भी हैं; अत: हेय हैं और भगवान आत्मा नित्य है, परमपवित्र है, परमानन्दरूप है एवं परमानन्द का कारण भी है; अत: ध्येय है, श्रद्धेय है, आराध्य है, साध्य है एवं परम-उपादेय भी हैं' - इसप्रकार का चिन्तन किया गया है। इसप्रकार संयोग और संयोगी भावों से विरक्ति उत्पन्न कर संवर और निर्जरा भावना में पर और पर्यायों से भिन्न निज भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली निर्मलपर्यायरूप शुद्धि और शुद्धि की वृद्धि की उपादेयता का चिन्तन किया गया; क्योंकि शुद्धि की उत्पत्ति व स्थितिरूप संवर तथा वृद्धिरूप निर्जरा ही अनन्त सुखरूप मोक्ष प्रगट (49)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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