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छहढाला का सार
व्यवस्था नहीं करते हैं। उनका होना मेरे लिए नहीं होने से भी बुरा है। इससे तो मैं बाँझ रह जाती तो अच्छा रहता। मैं उन्हें अपना बेटा नहीं मानती हूँ।
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यद्यपि वे बेटे उसकी कूंख से पैदा हुये हैं; फिर भी वह उन्हें अपना नहीं मानती; क्योंकि वे सुखदायक नहीं, दुःखदायक हैं।
इसीप्रकार यद्यपि मोह-राग-द्वेषरूप आस्रवभाव, बंधभाव, पुण्यपापभाव आत्मा में ही पैदा होते हैं, आत्मा की ही विकारी पर्यायें हैं: तथापि ज्ञानीजन उन्हें अपना नहीं मानते; क्योंकि वे आत्मा को सुखदायक नहीं, दुःखदायक हैं।
इसप्रकार आस्रव, बंध और पुण्य पाप की चर्चा की । अब संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्त्व की चर्चा करते हैं । शम-दम तैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये । तप-बल तैं विधि-झरन निर्जरा, ताहि सदा आचरिये ॥ सकल कर्म तैं रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी । सम्यग्दर्शनपूर्वक कषायों के शमन और इन्द्रियों के दमन से जो कर्मों का आस्रव रुकता है, वह संवर है; उसका आदर करना चाहिये और तीन कषाय के अभावरूप शुद्धपरिणति तथा शुद्धोपयोगरूप तप के बल से जो पुराने कर्म झरते हैं, वह निर्जरा है। इस निर्जरा का आचरण सदा करना चाहिए। सम्पूर्ण कर्मों से रहित जो जीव की अवस्था है, वह अनन्तसुखमय मोक्ष है।
तत्त्वोंसंबंधी उक्त व्याख्या यद्यपि एक-एक पंक्ति में ही है; तथापि उन एक-एक पंक्तियों में न केवल संबंधित तत्त्व का स्वरूप पूर्णत: स्पष्ट हो गया है; अपितु तत्संबधित हेयोपादेय व्यवस्था भी बता दी गई है। यही कारण है कि छहढाला को गागर में सागर कहा जाता है।
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तीसरा प्रवचन
पंक्तियों की अन्तिम शब्दावली देखनेलायक है। तजिये, न सजिये, आदरिये और आचरिये इन चार शब्दों में आस्रव-बंध का हेयपना और संवर - निर्जरा का उपादेयपना स्पष्ट हो गया है।
तत्त्वों के स्वरूप प्रतिपादन में हम कितना ही विस्तार क्यों न कर दे; किन्तु यदि हेयोपादेय नहीं बताया गया तो समझिये बात अधूरी ही रह गयी है। अब कहते हैं कि
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इह विधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी ।। इसप्रकार हेयोपादेय व्यवस्था सहित उक्त सात तत्त्वों की जो श्रद्धा
है, उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं।
इसके बाद दौलतरामजी कहते हैं -
देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो । हुमान समकित को कारण, अष्ट अंगजुत धारो ।। जिनेन्द्र देव, परिग्रह रहित गुरु और करुणामयी धर्म को भी सम्यग्दर्शन का कारण मानना चाहिये। अतः हे भव्यजीवों ! इस सम्यग्दर्शन को आठ अंगों सहित धारण करो ।
सात तत्त्व और देव, गुरु, धर्म के श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन का निरूपण करने के उपरान्त विषयवस्तु को समेटते हुये वे कहते हैं कि -
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो । शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ।। अष्ट अंग अरु दोष पचीसौं, तिन संक्षेपहु कहिये । बिन जाने तैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये ।। आठ मदों को टालकर, तीन मूढ़ताओं का निवारण करके छह अनायतनों को त्याग दो और शंकादि आठ दोषों से रहित होते हुये प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकंपा आदि सद्गुणों में चित्त लगाओ;