SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० छहढाला का सार भगवान देहसहित होने से सकल परमात्मा हैं और ज्ञान ही है शरीर जिनका, ऐसे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित अमल सिद्ध भगवान देहरहित होने से निकल परमात्मा हैं। ये निकल और सकल परमात्मा अनंत सुखको अनन्तकाल तक भोगनेवाले हैं। इनमें से बहिरात्मापने को हेय जानकर छोड़ देना चाहिए, अन्तरात्मा हो जाना चाहिये और परमात्मा का ध्यान निरन्तर करना चाहिये; उससे तुझे नित्यानन्द की प्राप्ति होगी । चेतना से रहित अजीव पाँच प्रकार के हैं। जिनमें आठ स्पर्श, पाँच वर्ण, पाँच रस और दो प्रकार की गंधवाला पुद्गल है; जीव और पुद्गलों को चलने में निमित्तरूप धर्मद्रव्य और ठहरने में निमित्तरूप अधर्मद्रव्य अमूर्तिक होने से अरूपी हैं। जिसमें छहों द्रव्य रहते हैं, वह आकाश है; वर्तना निश्चयकाल है और घड़ी-घंटा, दिन-रात व्यवहारकाल है। यह तो जीव - अजीव तत्त्व की बात हुई; अब कहते हैं कि आत्मा में उत्पन्न होनेवाले विकारी पर्यायरूप मोह-राग-द्वेषभाव भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये भाव आस्रवभाव हैं, बंधरूप भाव हैं, पुण्य-पापरूप भाव हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय सहित उपयोग ही आस्रव है और आत्मप्रदेशों के साथ कर्मों का बंधन बंध है। ये आस्रव और बंध आत्मा को दुःख देनेवाले हैं। कहा भी है - ये ही आम को दुःख कारण, तातैं इनको तजिये । जीव प्रदेश बँधै विधि सौं सो, बंधन कबहुँ न सजिये ।। ये आस्रवभाव आत्मा को दुःख देनेवाले हैं; इसलिए इनको छोड़ देना चाहिये और आत्मप्रदेशों के साथ कर्मों का बंधना बंध है; ऐसा बंध कभी नहीं करना चाहिये । (26) तीसरा प्रवचन इन्हें विस्तार से जाने तो ठीक, न जाने तो भी कोई बात नहीं; पर ये जो रागादिभाव आस्रव हैं, बंध हैं, ये मैं नहीं हूँ । यद्यपि ये मेरी ही विकारी पर्याये हैं, पर दु:खदायी हैं; इसलिए मेरी नहीं हैं। जो दुःख का कारण होते हैं, वे निकाल देने लायक होते हैं और यदि उन्हें आप अपना मानेंगे तो फिर निकालेंगे कैसे ? इसलिए वे भले ही अपने में पैदा होते हैं, पर दुःख के कारण होने से हमारे नहीं हैं। हम इस बात को निम्नलिखित उदाहरण से समझ सकते हैं। मैं एक स्थान पर पर्यूषण में व्याख्यान कर रहा था। एक अम्माजी प्रवचन के बीच में ही एकदम खड़ी हो गई और कहने लगीं - - पण्डितजी ! प्रवचन बंद करो और पहले मेरी बात सुनो। मैं चार दिनों से भूखी बैठी हूँ, ये पंच लोग मेरे खाने का इंतजाम क्यों नहीं करते? मैंने कहा - गजब हो गया, एक साधर्मी बहन भूखी बैठी हैं। और बड़े-बड़े दानवीर लोग यहाँ बैठे हैं। क्यों भाई ! क्या बात है ? लोगों ने कहा- पण्डितजी ! आप इन बातों में मत उलझो । उस अम्मा के चार-चार जवान बेटे हैं, एक-एक की चार-चार दुकानें हैं, चारों करोड़पति हैं। इनकी व्यवस्था वे नहीं करते तो हम क्यों करें ? मैंने कहा - बात तो सच्ची है। क्यों अम्माजी तुम्हारे चार-चार बेटे हैं ? अम्मा ने कहा- मेरा एक भी बेटा नहीं है। पंच कह रहे थे कि चार-चार बेटे हैं और अम्मा कह रही थी कि मेरा एक भी बेटा नहीं है। अतः मैंने अम्मा से कहा - अम्मा ! सच बोलो, इतने लोग कह रहे हैं कि तुम्हारे चार-चार बेटे हैं। अम्मा ने अत्यन्त अरुचिपूर्वक दुःख के साथ कहा - बेटा ! ये बेटे नहीं होते तो अच्छा था, ये तो नहीं होने से भी बुरे हैं; क्योंकि वे खुद व्यवस्था करते नहीं हैं और वे हैं, इसलिए पंच भी
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy