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छहढाला का सार
क्योंकि जबतक गुणों और दोषों को पहिचानेंगे नहीं, तबतक गुणों को ग्रहण करना और दोषों को छोड़ना संभव नहीं है; अत: अब संक्षेप में आठ अंगों और पच्चीस दोषों का वर्णन करते हैं।
महाकवि तुलसीदासजी रामचरितमानस (रामायण) में लिखते हैंसंग्रह - त्याग न विनु पहिचाने
बिना पहिचान के किसी भी वस्तु का ग्रहण करना और त्याग करना संभव नहीं है।
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अब निःशंकादि अंगों (गुणों) और शंकादि दोषों की चर्चा करते हैं; जो इसप्रकार हैं -
जिन - वच में शंका न धार, वृष भव सुख-वांछा भानै । मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व - कुतत्त्व पिछानै ।। निज-गुण अरु पर-औगुण ढाँकै, वा निज धर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृष तैं चिगते, निज-पर को सु दिढ़ावै ।। धर्मी सौं गो-वच्छ प्रीति सम, कर निज धर्म दिपावै । इन गुन तैं विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै ।।
जिनेन्द्र भगवान के वचनों में शंका नहीं रखना निःशंकित अंग है; धर्म से सांसारिक सुखों की इच्छा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है; अस्नानव्रती मुनिराजों के मलिन तन को देखकर घृणा नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग है; तत्त्व और कुतत्त्वों की पहिचान करना अमूढदृष्टि अंग है; अपने गुणों और दूसरे के दोषों को प्रगट नहीं करना उपगूहन अंग है और इस उपगूहन अंग को अपने धर्म की वृद्धि का कारण होने से उपबृंहण अंग भी कहते हैं।
स्वयं या कोई अन्य व्यक्ति कामादिक के कारण धर्म से चिग रहा हो तो स्वयं को या उसे धर्म में स्थिर कर देना, दृढ़ कर देना स्थितिकरण अंग है। जिसप्रकार बिना किसी स्वार्थ के गाय बछड़े से वात्सल्यभाव रखती है; उसीप्रकार साधर्मी भाई-बहनों से वात्सल्यभाव रखना वात्सल्य
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तीसरा प्रवचन
अंग है और अपने धर्म की प्रभावना करना प्रभावना अंग है।
इन आठ अंगों को धारण करना और इनसे विपरीत शंका, कांक्षा आदि आठ दोषों से निरन्तर दूर रहना सम्यग्दृष्टियों का कर्त्तव्य है । पच्चीस दोषों में से अब आठ मदों की चर्चा करते हैं - पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठानै । मदन रूप को मद न ज्ञान कौ, धन-बल कौ मद भानै ॥ तप को मदन मद जु प्रभुता कौ, करै न सो निज जाने । मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठानै ।। पिता या मामा राजा हो तो भी इस बात का अभिमान नहीं करना चाहिये । इसीप्रकार सुन्दरता का, क्षयोपशम ज्ञान का, धन का, बल का, तप का और प्रभुता का मद जो नहीं करता, वह आत्मा को जानता है, आत्मानुभव करता है। यदि उक्त आठ मदों को धारण करे तो ये आठ दोष सम्यग्दर्शन में मल पैदा करते हैं।
प्रश्न : पिता राजा हो तो कुलमद है। मामा राजा हो तो जातिमद - यह बात कुछ ठीक नहीं लगती; क्योंकि यदि ऐसा है तो फिर कुलमद तो अकेले राजा के बेटे को और जातिमद राजा के भानजे को ही होगा; परन्तु अन्य मिथ्यादृष्टियों को भी तो कुलमद - जातिमद हो सकते हैं, होते ही हैं।
उत्तर : वस्तुतः बात यह है कि पिता नियम से हमारे कुल का ही होता है और मामा नियम से हमारे कुल का नहीं हो सकता; क्योंकि अपने कुल में, अपने गोत्र में शादियाँ नहीं होती।
जिसप्रकार एक ही कुल के लड़के-लड़की में परस्पर शादी नहीं होती; उसीप्रकार पुराने जमाने में जाति के बाहर भी शादियाँ नहीं होती थीं। अतः यहाँ पिता शब्द कुल का सूचक है और मामा शब्द जाति का सूचक है। इसप्रकार यहाँ पर कुलमद को पिता से और जातिमद को