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________________ छहढाला का सार दूसरा प्रवचन ર૭ यदि इस संसार में सुख होता तो तीर्थंकरों को क्या कमी थी; वे सब वैभव का त्याग क्यों करते और मुक्ति के मार्ग की साधना में क्यों लगते तथा संयम से प्रीति क्यों जोड़ते। हम क्या करें ? हमने तो छहढाला पढ़ी है, उसमें चार गति में दुःख ही दुःख बताये हैं और आप कहते हो संसार में सुख बताओ। जो पण्डित आप लोगों को संसार में सुख बताते हैं, वे आपको धोखा देते हैं। संसार में सुख है - ऐसा जैनशास्त्रों में कही नहीं लिखा है और चारों गतियों में दुःख ही दुःख है - सभी जगह यही लिखा है। ___मैंने उनसे कहा कि मैंने एक नई शोध की है कि शान्तिनाथ भगवान की आँख में मोतियाबिन्द था । वे चक्रवर्ती थे, तीर्थंकर थे, कामदेव थे। तीन-तीन पदवियों के धारक थे। संसार में सबसे ज्यादा पुण्यशाली थे। जितना अधिक सांसारिक वैभव उनके पास था, उतना किसी और के पास तो सम्भव ही नहीं है। आदिनाथ के पास भी नहीं है; क्योंकि वे चक्रवर्ती नहीं थे, कामदेव नहीं थे और शांतिनाथ तीर्थंकर के साथसाथ चक्रवर्ती व कामदेव भी थे। फिर भी शांतिनाथ ये सब छोड़कर चले गये, उन्हें संसार में सुख नहीं दिखा और तुम्हारे इन पण्डितों को दिखता है तो जरूर शांतिनाथ के आँख में कोई न कोई तकलीफ होगी और वह मोतियाबिन्द के अलावा क्या हो सकती है ? ____ मैं आपसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि बाद में किसी से यह मत कहना कि एक पण्डित आया था और वह कहता था कि भगवान शान्तिनाथ के आँख में मोतियाबिन्द था। यह कहकर मैं जो कहना चाहता हूँ, वह आपकी समझ में आ ही गया होगा। अब कहते हैं कि इस संसार में जो दुःख है, उसका कारण क्या है ? ऐसे मिथ्या दृग-ज्ञान-चरणवश भ्रमत भरत दुःख जन्म मरण । तात्पर्य यह है कि यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश ही संसार में परिभ्रमण करता है और जन्म-मरण के अनन्त दु:ख भोगता है। __इसमें दो बातें आ गईं कि दुःख तो असलियत में जन्म-मरण के ही हैं और मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वशीभूत होकर जीव उन्हें भोगता है। यह जानते हुये कि भगवान सब कुछ जानते हैं, हम उन्हें अपनी व्यथा-कथा सुनाते हैं। कहते हैं कि - चारों गति के मांहि मैं दुःख पाये सो सुनो। हे प्रभु ! चारों गतियों में मैंने जो-जो दुःख पाये हैं; उन्हें आप ध्यान से सुनिये। साथ में यह भी कहते हैं कि - __ तुमको बिन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । भगवान ! आप तो केवलज्ञानी हो, आपको जाने बिना मैंने जो दुःख उठाये हैं, आप वे सब जानते हो। ___ यदि यह बात तुम जानते हो तो अगली ही पंक्ति में अपनी व्यथाकथा क्यों सुनाने लगते हो। कहते हो - पशु नारक नर सुर गति मंझार, भव धर-धर मस्यो अनंत बार। तिर्यंच, नरक, मनुष्य और देवगति के बार-बार भव धारण करके अनंत बार जन्मता-मरता रहा हूँ। यहाँ भी चारों गतियों में दु:खों के रूप में जन्म-मरण की ही बात कही है। भव धरना माने जन्मना और मस्यो माने मरना। हमने सेठजी से कहा - हम कैसे बताये कि संसार में सुख है ? हम तो ऐसे भी सुखी नहीं हैं और वैसे भी सुखी नहीं हैं। उन्होंने कहा - ऐसे-वैसे क्या होता है ? (14)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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