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________________ २४ छहढाला का सार दूसरा प्रवचन नरक में सोने का मौका ही नहीं मिलता है; इतने दण्डे पड़ते हैं कि नींद आने का सवाल ही नहीं है। इसलिए वहाँ ज्ञान की निधि नहीं लुटती है और देवगति में भोगों में इतने मस्त हो जाते हैं, ऐसे सो जाते हैं कि उनकी ज्ञाननिधि लुट जाती है और वे एकेन्द्रिय अवस्था में चले जाते हैं। नारकी तो सीधा निगोद में जाता नहीं। आप जिस देवगति को इतना बढ़िया मान रहे हो, वह देवगति कैसी है? आप इसकी कल्पना कीजिए। ऐसे परिवर्तन हमने अबतक अनन्त बार किये हैं। अन्तिम ग्रीवक लौ की हद, पायो अनन्त विरियाँ पद । पर सम्यग्ज्ञान न लाधो दुर्लभ निज में मुनि साधो ।। इसप्रकार यह जीव भटकता हुआ अन्तिम गैवेयिक तक अनन्त बार गया; परन्तु दुर्लभ सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया, इसलिये अनन्त दुःख उठाता रहा। उक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मुनिराज स्वयं स्वयं में साधते हैं। नवमें ग्रैवेयक तक गया; क्योंकि नवमें ग्रैवेयक तक गये बिना पंचपरावर्तन पूरे नहीं होते । इस जीव ने अनेक पंचपरावर्तन पूरे किये हैं। निगोद से निकला और परिवर्तन करके निगोद में पहुँच गया। जगत की दृष्टि में भोगों की प्रधानता है; इसलिए वे स्वर्ग में सुख मान रहे हैं। नरक गति में भोग नहीं हैं, इसलिए दुःख मान रहे हैं और सुखी होने के लिए उन भोगों को जोड़ने में ही लगे हैं। आचार्यदेव कहते हैं - संसार में तो दुःख ही दुःख हैं, सुख है ही नहीं, तो मिलेगा कहाँ से? आप कहेंगे हम तो आये थे मोक्ष का मार्ग सुनने; लेकिन तुमने तो नरक के, तिर्यंच के दु:ख बताना शुरू कर दिये। हम तो छहढाला की क्लास में इसलिए आये थे कि हम आत्मा की बात सुनेंगे, मोक्ष का मार्ग मिलेगा और तुमने तो नरक की और निगोद की बात शुरू कर दी। __ अरे भाई ! जबतक यह जीव जिस हालत में है और यह मानता है कि मैं इसी हालत में सुखी हूँ; तबतक वह हालत बदलने की कोशिश नहीं करेगा। अत: पहले तो उसे यह बताना कि तू इस हालत में सुखी नहीं है। चारों गतियों में दुःख ही दुःख हैं - ऐसा ज्ञान हो जावे और मुझे इनसे बाहर निकलना है - ऐसा संकल्प अन्दर में जाग जाये; तब हम निकलने का जो रास्ता बतायेंगे, उसे यह ध्यान से सुनेगा, अन्यथा यह ध्यान से सुनेगा भी नहीं। बहुत पुरानी बात है - मैं सन् १९६२ के पूर्यषण में मुंबई में भूलेश्वर के मंदिर में प्रवचनार्थ गया था, वहाँ विविध मंदिरों में जितने भी पण्डित प्रवचनार्थ आते थे, वे सभी पूर्णमासी के दिन साहूजी के आमन्त्रण पर उनके यहाँ भोजन करने जाते थे। वहाँ पर भूलेश्वर मंदिर का जुलूस निकलता था। उसकी वजह से मैं जाने में लेट हो गया। सभी विद्वान पहले पहुँच गये। सब लोग खाने की तैयारी में थे, हँसी-मजाक चल रहा था । इतने में मैं वहाँ पहुँचा तो सब एकदम ठहाका मारकर हँस पड़े। क्या हुआ है - यह मेरी समझ में नहीं आया। ___ तब साहूजी ने मेरे से कहा - पण्डितजी हमने सुना है कि आप मोक्ष ही मोक्ष की बात करते हो, मोक्षमार्ग की बात ही दुनिया को बताते हो लेकिन हम जैसे संसारी जीवों को संसार में सख कैसे प्राप्त हो - यह भी तो बताओ। जैसे ही उन्होंने यह कहा तो सब विद्वान ठहाका मारकर हँस पड़े; क्योंकि वहाँ तो पहले से ही ऐसी ही बातें चल रहीं थी कि एक पण्डित आया है, वह आत्मा-फात्मा की बातें करता है. वह मोक्ष की बातें ही करता है। मैंने कहा - सेठजी ! हम क्या करें ? हमारा दुर्भाग्य है कि हमने जन्म से ही यही पढ़ा है कि - जो संसार विषै सुख हो तो तीर्थंकर क्यों त्यागें ? काहे को शिवसाधन करते संयम सो अनुरागें ।। (13)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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