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अष्टपाहुड
अर्थ – जो साधु मुनि अपनी शक्ति के सैंकड़ों से युक्त होते हुए क्षुधा, तृषादिक बाईस परीषहों को सहते हैं और कर्मों की क्षयरूप निर्जरा करने में प्रवीण हैं, वे साधु वंदने योग्य हैं ।
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भावार्थ - जो बड़ी शक्ति के धारक साधु हैं, वे परीषहों को सहते हैं, परीषह आने पर अपने पद से च्युत नहीं होते हैं, उनके कर्मों की निर्जरा होती है, वे वंदने योग्य हैं ।।१२।। आगे कहते हैं कि जो दिगम्बरमुद्रा सिवाय कोई वस्त्र धारण करे, सम्यग्दर्शन ज्ञान से युक्त वे इच्छाकार करने योग्य हैं
अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्म संजुत्ता ।
चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जा य ।। १३ ।।
अवशेषा ये लिंगिन: दर्शनज्ञानेन सम्यक् संयुक्ता: ।
चेलेन च परिगृहीता: ते भणिता इच्छाकारयोग्याः ।। १३ ।।
अर्थ – दिगम्बरमुद्रा सिवाय जो अवशेष लिंगी भेष संयुक्त और सम्यक्त्व सहित दर्शन ज्ञान संयुक्त हैं तथा वस्त्र से परिगृहीत हैं, वस्त्र धारण करते हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं।
भावार्थ – जो सम्यग्दर्शन ज्ञान संयुक्त हैं और उत्कृष्ट श्रावक का भेष धारण करते हैं, एक वस्त्र मात्र परिग्रह रखते हैं, वे इच्छाकार करने योग्य हैं, इसलिए 'इच्छामि' इसप्रकार कहते हैं। इसका अर्थ है कि मैं आपको इच्छू हूँ, चाहता हूँ ऐसा 'इच्छामि' शब्द का अर्थ है । इसप्रकार से इच्छाकार करना जिनसूत्र में कहा है ।। १३ ।।
आगे इच्छाकार योग्य श्रावक का स्वरूप कहते हैं -
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इच्छायारमहत्थं सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्मं ।
ठाणे ट्ठियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होदि । । १४ । ।
इच्छाकारमहार्थं सूत्रस्थित: य: स्फुटं त्यजति कर्मं ।
स्थाने स्थितसम्यक्त्व: परलोकसुखंकरः भवति ।। १४ ।।
अर्थ - जो पुरुष जिनसूत्र में तिष्ठता हुआ इच्छाकार शब्द के महान प्रधान अर्थ को जानता है और स्थान जो श्रावक के भेदरूप प्रतिमाओं में तिष्ठता हुआ सम्यक्त्व सहित वर्तता है, आरंभ
आदि कर्मों को छोड़ता है, वह परलोक में सुख प्रदान करनेवाला होता है।
अवशेष लिंगी वे गृही जो ज्ञान दर्शन युक्त हैं
शुभ वस्त्र से संयुक्त इच्छाकार के वे योग्य हैं ।। १३ ।। मर्मज्ञ इच्छाकार के अर शास्त्र सम्मत आचरण । सम्यक् सहित दुष्कर्म त्यागी सुख लहें परलोक में ।। १४ ।।