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सूत्रपाहुड
भावार्थ - उत्कृष्ट श्रावक को इच्छाकार करते हैं सो जो इच्छाकार के प्रधान अर्थ को
है और सूत्र अनुसार सम्यक्त्व सहित आरंभादिक छोड़कर उत्कृष्ट श्रावक होता है, वह परलोक में स्वर्ग का सुख पाता है ।।१४।।
आगे कहते हैं कि जो इच्छाकार के प्रधान अर्थ को नहीं जानता है और अन्य धर्म का आचरण करता है, वह सिद्धि को नहीं पाता है
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अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेड़ णिरवसेसाई ।
तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ।। १५ ।।
अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषान् । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थ: पुनः भणित: ।। १५ ।।
अर्थ – 'अथ पुनः' शब्द का ऐसा अर्थ है कि पहिली गाथा में कहा था कि जो इच्छाकार के प्रधान अर्थ को जानता है, वह आचरण करके स्वर्गसुख पाता है, वही अब फिर कहते हैं कि इच्छाकार का प्रधान अर्थ आत्मा को चाहना है, अपने स्वरूप में रुचि करना है वह इसको इष्ट नहीं करता है और अन्य धर्म के समस्त आचरण करता है तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्ष को नहीं पाता है और उसको संसार में ही रहनेवाला कहा है।
भावार्थ इच्छाकार का प्रधान अर्थ आपको चाहना है सो जिसके अपने स्वरूप की रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है, उसके सब मुनि श्रावक की आचरणरूप प्रवृत्ति मोक्ष का कारण नहीं है।।१५।।
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करके उपदेश करते हैं
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एएण कारणेण यतं अप्पा सद्दह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ।। १६ ।।
एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन । येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ।। १६ ।।
जो चाहता नहिं आतमा वह आचरण कुछ भी करे I पर सिद्धि को पाता नहीं संसार में भ्रमता रहे ।। १५ ।। बस इसलिए मन वचन तन से आत्म की आराधना । तुम करो जानो यत्न से मिल जाय शिवसुख साधना ।। १६ ।।