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सूत्रपाहुड
भावार्थ - जो मृगचर्म, वृक्ष के वल्कल, कपास पट्ट, दुकूल, रोमवस्त्र, टाट के और तृण के वस्त्र इत्यादि रखकर अपने को मोक्षमार्गी मानते हैं तथा इस काल में जिनसूत्र से च्युत हो गये हैं, उन्होंने अपनी इच्छा से अनेक भेष चलाये हैं, कई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कई रक्त वस्त्र, कई पीले वस्त्र, कई टाट के वस्त्र, कई घास के वस्त्र और कई रोम के वस्त्र आदि रखते हैं, उनके मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि जिनसूत्र में तो एक नग्न दिगम्बर स्वरूप पाणिपात्र भोजन करना, इसप्रकार मोक्षमार्ग में कहा है, अन्य सब भेष मोक्षमार्ग नहीं हैं और जो मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं ।।१०।। आगे दिगम्बर मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति कहते हैं -
जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि। सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए।।११।।
य: संयमेषुसहित: आरंभपरिग्रहेषु विरत: अपि।
स: भवति वंदनीय: ससुरासुरमानुषे लोके ।।११।। अर्थ – जो दिगम्बर मुद्रा का धारक मुनि इन्द्रिय-मन को वश में करना, छह काय के जीवों की दया करना इसप्रकार संयम सहित हो और आरम्भ अर्थात् गृहस्थ के सब आरम्भों से तथा बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से विरक्त हो इनमें नहीं प्रवर्ते तथा आदि शब्द से ब्रह्मचर्य आदि गुणों से युक्त हो वह देव-दानव सहित मनुष्यलोक में वंदने योग्य है, अन्य भेषी परिग्रह-आरंभादि से युक्त पाखण्डी (ढोंगी) वंदने योग्य नहीं है ।।११।। आगे फिर उनकी प्रवृत्ति का विशेष कहते हैं -
जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू ।।१२।।
ये द्वाविंशतिपरीषहान्सहते शक्तिशतैः संयुक्ताः। ते भवंति वंदनीया: कर्मक्षयनिर्जरासाधवः ।।१२।।
१. पाठान्तर - होंदि।
संयम सहित हों जो श्रमण हों विरत परिग्रहारंभ से। वे वन्द्य हैं सब देव-दानव और मानष लोक से॥११।। निजशक्ति से सम्पन्न जो बाइस परीषह को सहें। अर कर्म क्षय वा निर्जरा सम्पन्न मुनिजन वंद्य हैं ।।१२।।