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सूत्रपाहुड ये हैं - अर्हबलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समंतभद्र, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचन्द्र इत्यादि। ___ इनके पीछे इनकी परिपाटी में आचार्य हुए, इनसे अर्थ का व्युच्छेद नहीं हुआ, ऐसी दिगम्बरों के संप्रदाय में प्ररूपणा यथार्थ है। अन्य श्वेताम्बरादिक वर्द्धमान स्वामी से परम्परा मिलाते हैं, वह कल्पित है, क्योंकि भद्रबाहु स्वामी के पीछे कई मुनि अवस्था में भ्रष्ट हुए, ये अर्द्धफालक कहलाये। इनकी सम्प्रदाय में श्वेताम्बर हुए, इनमें “देवर्द्धिगणी” नाम का साधु इनकी संप्रदाय में हुआ है, इसने सूत्र बनाये हैं सो इनमें शिथिलाचार को पुष्ट करने के लिए कल्पित कथा तथा कल्पित आचरण का कथन किया है, वह प्रमाणभूत नहीं है। पंचमकाल में जैनाभासों के शिथिलाचार की अधिकता है सो युक्त है, इस काल में सच्चे मोक्षमार्ग की विरलता है, इसलिए शिथिलाचारियों के सच्चा मोक्षमार्ग कहाँ से हो इसप्रकार जानना। __ अब यहाँ कुछ द्वादशांगसूत्र तथा अङ्गबाह्यश्रुत का वर्णन लिखते हैं - तीर्थंकर के मुख से उत्पन्न हुई सर्व भाषामय दिव्यध्वनि को सुनकर के चार ज्ञान, सप्तऋद्धि के धारक गणधर देवों ने अक्षर पदमय सूत्ररचना की। सूत्र दो प्रकार के हैं - १. अंग, २. अङ्गबाह्य । इनके अपुनरुक्त अक्षरों की संख्या बीस अङ्क प्रमाण है, ये अङ्क एक घाटि इकट्ठी प्रमाण हैं। ये अङ्क - १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ इतने अक्षर हैं। इनके पद करें तब एक मध्यपद के अक्षर सोलह सौ चौतीस करोड़ तियासी लाख सात हजार आठ सौ अठ्य़ासी कहे हैं। इनका भाग देने पर एक सौ बारह करोड़ तियासी लाख अठावन हजार पाँच इतने पावें, ये पद बारह अंगरूप सूत्र के पद हैं और अवशेष बीस अङ्कों में अक्षर रहे, ये अङ्गबाह्य सूत्र कहलाते हैं । ये आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पिचहत्तर अक्षर हैं, इन अक्षरों में चौदह प्रकीर्णक रूप सूत्ररचना है।
अब इन द्वादशांगरूप सूत्ररचना के नाम और पद संख्या लिखते हैं - प्रथम अंग आचारांग हैं, इसमें मुनीश्वरों के आचार का निरूपण है, इसके पद अठारह हजार हैं।
दूसरा सूत्रकृत अंग है, इसमें ज्ञान का विनय आदिक अथवा धर्मक्रिया में स्वमत परमत की क्रिया के विशेष का निरूपण है, इसके पद छत्तीस हजार हैं।
तीसरा स्थान अंग है, इसमें पदार्थों के एक आदि स्थानों का निरूपण है जैसे जीव सामान्यरूप से एक प्रकार विशेषरूप से दो प्रकार, तीन प्रकार इत्यादि ऐसे स्थान कहे हैं. इसके पद बियालीस हजार हैं।
चौथा समवाय अंग है, इसमें जीवादिक छह द्रव्यों का द्रव्य-क्षेत्र-कालादि द्वारा वर्णन है, इसके पद एक लाख चौसठ हजार हैं।