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अष्टपाहुड उसको साधते हैं। अन्य जो अक्षपाद, जैमिनि, कपिल, सुगत आदि छद्मस्थों के द्वारा रचे हुए कल्पित सूत्र हैं, उनसे परमार्थ की सिद्धि नहीं है, इसप्रकार आशय जानना ।।१।।
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार सूत्र का अर्थ आचार्यों की परम्परा से प्रवर्तता है, उसको जानकर मोक्षमार्ग को साधते हैं, वे भव्य हैं -
सुत्तम्मि जं सुदिट्ट आइरियपरंपूरेण मग्गेण । णाऊण दुविह सुत्तं वट्टदि सिवमग्ग जो भव्वो ।।२।।
सूत्रे यत् सुदृष्ट आचार्यपरंपरेण मार्गेण।
ज्ञात्वा द्विविधं सूत्रं वर्तते शिवमार्गे य: भव्यः ।।२।। अर्थ – सर्वज्ञभाषित सूत्र में जो कुछ भलेप्रकार कहा है, उसको आचार्यों की परम्परारूप मार्ग से दो प्रकार के सूत्र को शब्दमय और अर्थमय जानकर मोक्षमार्ग में प्रवर्तता है, वह भव्यजीव है, मोक्ष पाने के योग्य है।
भावार्थ - यहाँ कोई कहे - अरहंत द्वारा भाषित और गणधर देवों से गूंथा हुआ सूत्र तो द्वादशागरूप है, वह तो इस काल में दीखता नहीं है, तब परमार्थरूप मोक्षमार्ग कैसे सधे, इसका समाधान करने के लिए यह गाथा है, अरहंतभाषित गणधररचित सूत्र में जो उपदेश है, उसको आचार्यों की परम्परा से जानते हैं, उसको शब्द और अर्थ के द्वारा जानकर जो मोक्षमार्ग को साधता है, वह मोक्ष होने योग्य भव्य है। यहाँ फिर कोई पछे कि आचार्यों की परम्परा क्या है ? अन्य ग्रन्थों में आचार्यों की परम्परा निम्न प्रकार से कही गई है -
श्री वर्धमान तीर्थंकर सर्वज्ञ देव के पीछे तीन केवलज्ञानी हुए - १. गौतम, २. सुधर्म, ३. जम्बू । इनके पीछे पाँच श्रुतकेवली हुए; इनको द्वादशांग सूत्र का ज्ञान था, १. विष्णु, २. नंदिमित्र, ३. अपराजित, ४. गौवर्द्धन, ५. भद्रबाहु । इनके पीछे दस पूर्व के ज्ञाता ग्यारह हुए; १. विशाख, २. प्रौष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४ जयसेन, ५. नागसेन, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेण, ८. विजय, ९. बुद्धिल, १०. गंगदेव, ११. धर्मसेन । इनके पीछे पाँच ग्यारह अंगों के धारक हुए; १. नक्षत्र, २. जयपाल, ३. पांडु, ४. ध्रुवसेन, ५. कंस । इनके पीछे एक अंग के धारक चार हुए; १. सुभद्र, २. यशोभद्र, ३. भद्रबाहु, ४. लोहाचार्य । इनके पीछे एक अंग के पूर्णज्ञानी की तो व्युच्छित्ति (अभाव) हुई और अंग के एकदेश अर्थ के ज्ञाता आचार्य हुए। इनमें से कुछ के नाम
जो भव्य हैं वे सूत्र में उपदिष्ट शिवमग जानकर। जिनपरम्परा से समागत शिवमार्ग में वर्तन करें।।२।।