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दर्शनपाहुड
जे गारवं करंति य सम्मत्तविवजिया होति ।।२५।।
अमरैः वंदितानां रूपं दृष्टवा शीलसहितानाम् ।
ये गौरवं कुर्वन्ति च सम्यक्त्वविवर्जिताः भवंति ।।२५।। अर्थ – देवों से वंदने योग्य शीलसहित जिनेश्वरदेव के यथाजातरूप को देखकर जो गौरव करते हैं, विनयादिक नहीं करते हैं, वे सम्यक्त्व से रहित हैं।
भावार्थ - जिस यथाजातरूप को देखकर अणिमादिक ऋद्धियों के धारक देव भी चरणों में गिरते हैं, उसको देखकर मत्सरभाव से नमस्कार नहीं करते हैं, उनके सम्यक्त्व कैसा ? वे सम्यक्त्व से रहित ही हैं ।।२५।। अब कहते हैं कि असंयमी वंदने योग्य नहीं है -
अस्संजदं ण वन्दे वत्थविहीणोवि तो ण वंदिज। दोण्णि वि होंति समाणा एगो विण संजदो होदि।।२६।। असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्येत ।
द्वौ अपि भवतः समानौ एकः अपि न संयत: भवति ॥२६।। अर्थ – असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए। भावसंयम नहीं हो और बाह्य में वस्त्र रहित हो वह भी वंदने योग्य नहीं है. क्योंकि ये दोनों ही संयम रहित समान हैं. इनमें एक भी संयमी नहीं है।
भावार्थ - जिसने गृहस्थ का भेष धारण किया है, वह तो असंयमी है ही, परन्तु जिसने बाह्य में नग्नरूप धारण किया है और अंतरंग में भावसंयम नहीं है तो वह भी असंयमी ही है, इसलिए यह दोनों ही असंयमी हैं, अत: दोनों ही वंदने योग्य नहीं हैं अर्थात् ऐसा आशय नहीं जानना चाहिए कि जो आचार्य यथाजातरूप को दर्शन कहते आये हैं, वह केवल नग्नरूप ही यथाजातरूप होगा, क्योंकि आचार्य तो बाह्य-अभ्यंतर सब परिग्रह से रहित हो उसको यथाजातरूप कहते हैं। अभ्यंतर भावसंयम बिना बाह्य नग्न होने से तो कुछ संयमी होता नहीं है - ऐसा जानना।
यहाँ कोई पूछे - बाह्य भेष शुद्ध हो, आचार निर्दोष पालन करनेवाले के अभ्यंतर भाव में कपट हो उसका निश्चय कैसे हो तथा सूक्ष्मभाव केवलीगम्य हैं, मिथ्याभाव हो उसका निश्चय कैसे हो, निश्चय बिना वंदने की क्या रीति ? उसका समाधान - ऐसे कपट का जबतक निश्चय नहीं हो तबतक आचार शुद्ध देखकर
असंयमी ना वन्द्य है दृगहीन वस्त्रविहीन भी। दोनों ही एक समान हैं दोनों ही संयत हैं नहीं।।२६।।