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अष्टपाहुड
वंदना करे उसमे दोष नहीं है और कपट का किसी कारण से निश्चय हो जाय तब वंदना नहीं करे, केवलीगम्य मिथ्यात्व की व्यवहार में चर्चा नहीं है, छद्मस्थ के ज्ञानगम्य की चर्चा है। जो अपने ज्ञान का विषय ही नहीं, उसका बाधनिर्बाध करने का व्यवहार नहीं है, सर्वज्ञ भगवान की भी यही आज्ञा है। व्यवहारी जीव को व्यवहार का ही शरण है ।।२६।।
(नोट - एक गुण का दूसरे आनुषंगिक गुण द्वारा निश्चय करना व्यवहार है, उसी का नाम व्यवहारी जीव को व्यवहार का शरण है।) आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं -
ण वि देहो वंदिज्जइण वि य कुलोण वि य जाइसंजुतो। को वंदमि गुणहीणो ण हुसवणो णेय सावओ होइ ।।२७।। नापि देहो वंद्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्तः ।
कः वंद्यते गुणहीन: न खलु श्रमण: नैव श्रावकः भवति ।।२७।। अर्थ - देह को भी नहीं वंदते हैं और कुल को भी नहीं वंदते हैं तथा जातियुक्त को भी नहीं वंदते हैं, क्योंकि गुणरहित हो उसको कौन वंदे ? गुण बिना प्रकट मुनि नहीं, श्रावक भी नहीं है।
भावार्थ - लोक में भी ऐसा न्याय है जो गुणहीन हो उसको कोई श्रेष्ठ नहीं मानता है, देह रूपवान हो तो क्या, कुल बड़ा हो तो क्या, जाति बड़ी हो तो क्या, क्योंकि मोक्षमार्ग में तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुण हैं, इनके बिना जाति-कुल-रूप आदि वंदनीय नहीं हैं, इनसे मुनिश्रावकपणा नहीं आता है, मुनि-श्रावकपणा तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से होता है, इसलिए इनके धारक हैं वही वंदने योग्य हैं, जाति, कुल आदि वंदने योग्य नहीं हैं ।।२७।। अब कहते हैं कि जो तप आदि से संयुक्त हैं, उनको नमस्कार करता हूँ -
वंदमि तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च । सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण' सुद्धभावेण ।।२८।।
१. 'कं वन्देगुणहीन' षट्पाहुड में पाठ है। २. 'तव समण्णा' छाया - (तपः समापन्नात्) तवसउण्णा' तवसमाणं' ये तीन पाठ मुद्रित षट्प्राभृत की पुस्तक तथा उसकी टिप्पणी में है। ३. 'सम्मत्तेणेव' ऐसा पाठ होने से पाद भङ्ग नहीं होता।
ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की। कोई करे क्यों वंदना गुणहीन श्रावक-साधु की ।।२७।। गुण शील तप सम्यक्त्व मंडित ब्रह्मचारी श्रमण जो। शिवगमन तत्पर उन श्रमण को शुद्धमन से नमन हो ।।२८।।