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अष्टपाहुड
एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ।।२३।।
दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकालसुप्रस्वस्थाः।
ऐते तु वन्दनीया ये गुणवादिन: गुणधराणाम् ।।२३।। अर्थ – दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप तथा विनय इनमें जो भले प्रकार स्थित हैं, वे प्रशस्त हैं, सराहने योग्य हैं अथवा भले प्रकार स्वस्थ हैं लीन हैं और गणधर आचार्य भी उनके गुणानुवाद करते हैं, अतः वे वन्दने योग्य हैं। दूसरे जो दर्शनादिक से भ्रष्ट हैं और गुणवानों से मत्सरभाव रखकर विनयरूप नहीं प्रवर्तते हैं वे वंदने योग्य नहीं हैं ।।२३।।
अब कहते हैं कि जो यथाजातरूप को देखकर मत्सरभाव से वन्दना नहीं करते हैं, वे मिथ्यादृष्टि ही हैं -
सहजुप्पण्णं रूवं दहें जो मण्णए ण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।।२४।।
सहजोत्पन्नं रूपं दृष्टवा य: मन्यते न मत्सरी।
स: संयमप्रतिपन्नः मिथ्यादृष्टिः भवति एषः ।।२४।। अर्थ – जो सहजोत्पन्न यथाजातरूप को देखकर नहीं मानते हैं, उसका विनय सत्कार प्रीति नहीं करते है और मत्सर भाव करते हैं, वे संयमप्रतिपन्न हैं, दीक्षा ग्रहण की है, फिर भी प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टि हैं ।।२४।।
भावार्थ - जो यथाजातरूप को देखकर मत्सरभाव से उसका विनय नहीं करते हैं तो ज्ञात होता है कि इनके इस रूप की श्रद्धा-रुचि नहीं है, ऐसी श्रद्धा-रुचि बिना तो मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि जो श्वेताम्बरादिक हुए वे दिगम्बर रूप के प्रति मत्सरभाव रखते हैं और उसका विनय नहीं करते हैं, उनका निषेध है ।।२४।। आगे इसी को दृढ़ करते हैं -
अमराण वंदियाणं रूवं दठूण सीलसहियाणं ।
सहज जिनवर लिंग लख ना नमें मत्सर भाव से। बस प्रगट मिथ्यादष्टि हैं संयम विरोधी जीव वे॥२४॥ अमर वंदित शील मण्डित रूप को भी देखकर । ना नमें गारब करें जो सम्यक्त्व विरहित जीव वे ॥२५।।