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दर्शनपाहुड ___ अर्थ - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देव का कहा हुआ दर्शन है सो गुणों में और दर्शन-ज्ञानचारित्र इन तीन रत्नों में सार है-उत्तम है और मोक्षमन्दिर में चढ़ने के लिए पहली सीढ़ी है, इसलिए आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवो ! तुम इसको अंतरंग भाव से धारण करो, बाह्य क्रियादिक से धारण करना तो परमार्थ नहीं है, अंतरंग की रुचि से धारण करना मोक्ष का कारण है।।२१।। अब कहते हैं कि जो श्रद्धान करता है, उसी के सम्यक्त्व होता है -
*जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं ।
केवलिजिणेहिं भणियं सद्दमाणस्स सम्मत्तं ।।२२।। यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्धानम् ।
केवलिजिनैः भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ।।२२।। अर्थ – जो करने को समर्थ हो वह तो करे और जो करने को समर्थ नहीं हो उसका श्रद्धान करे, क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।
भावार्थ - यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि सम्यक्त्व होने के बाद में तो सब परद्रव्य-संसार को हेय जानते हैं। जिसको हेय जाने उसको छोड़ मुनि बनकर चारित्र का पालन करे तब सम्यक्त्वी माना जावे, इसके समाधानरूप यह गाथा है, जिसने सब परद्रव्य को हेय जानकर निजस्वरूप को उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दर हआ. परन्त जबतक (चारित्र में प्रबल दोष है तबतक) चारित्र-मोहकर्म का उदय प्रबल होता है (और) तबतक चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती।
जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेष का श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करने को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ।।२२।। अब कहते हैं कि जो ऐसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित हैं, वे वंदन करने योग्य हैं -
दंसणणाणचरित्ते तवविणये 'णिच्चकालसुपसत्था।
* नियमसार गाथा १५४
१. पाठान्तर - णिच्चकालसुपसत्ता जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें। श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें।।२२।। ज्ञान दर्शन चरण में जो नित्य ही संलग्न हैं। गणधर करें गुण कथन जिनके वे मुनीजन वंद्य हैं ।।२३।।