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अष्टपाहुड
___ भावार्थ - आत्मा का निश्चय-व्यवहारात्मक तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप परिणाम सम्यग्दर्शन है, संशय-विमोह-विभ्रम से रहित और निश्चयव्यवहार से निजस्वरूप का यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञान से तत्त्वार्थों को जानकर रागद्वेषादिक रहित परिणाम होना सम्यक्चारित्र है, अपनी शक्ति अनसार सम्यग्ज्ञानपूर्वक कष्ट का आदर कर स्वरूप का साधना सम्यक् तप है, इसप्रकार ये चारों ही परिणाम आत्मा के हैं, इसलिए आचार्य कहते हैं कि मेरी आत्मा ही का शरण है, इसी की भावना में चारों आ गये। __ अंतसल्लेखना में चार आराधना का आराधन कहा है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चारों का उद्योत, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण ऐसे पंच प्रकार आराधना कही है, वह आत्मा को भाने में (आत्मा की भावना-एकाग्रता करने में) चारों आ गये ऐसे अंतसल्लेखना की भावना इसी में आ गई, ऐसे जानना तथा आत्मा ही परम मंगलरूप है ऐसा भी बताया है।।१०५।। आगे यह मोक्षपाहुड ग्रंथ पूर्ण किया, इसके पढ़ने-सुनने-भाने का फल कहते हैं -
एवं जिणपण्णत्तं मोक्खस्स य 'पाहुडं सुभत्तीए। जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ।।१०६।। एवं जिनप्रज्ञप्तं मोक्षस्य च प्राभृतं सुभक्त्या।
यः पठति शृणोति भावयति सः प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यं ।।१०६।। अर्थ - पूर्वोक्त प्रकार जिनदेव के कहे हुए मोक्षपाहुड ग्रंथ को जो जीव भक्तिभाव से पढ़ते हैं, इसकी बारम्बार चितवनरूप भावना करते हैं तथा सुनते हैं वे जीव शाश्वत सुख, नित्य अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय सुख को पाते हैं।
भावार्थ - मोक्षपाहुड में मोक्ष और मोक्ष के कारण का स्वरूप कहा है और जो मोक्ष के कारण का स्वरूप अन्यप्रकार मानते हैं उनका निषेध किया है इसलिए इस ग्रंथ के पढ़ने, सुनने से उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान श्रद्धान आचरण होता है उससे कर्म का नाश होता है और इसकी बारंबार भावना करने से उसमें दृढ़ होकर एकाग्र ध्यान की सामर्थ्य होती है, उस ध्यान से कर्म का नाश होकर शाश्वत सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए इस ग्रंथ को पढ़ना-सुनना निरन्तर
* स्वसन्मुखतारूप निज परिणाम की प्राप्ति का नाम ही उपादानरूप निश्चय काललब्धि है वह हो तो उससमय बाह्य द्रव्य-क्षेत्रकालादि की उचित सामग्री निमित्त है, उपचार कारण है, अन्यथा उपचार भी नहीं।
जिनवर कथित यह मोक्षपाहुड जो पुरुष अति प्रीति से। अध्ययन करें भावें सुनें वे परमसख को प्राप्त हों।।१०६।।