________________
मोक्षपाहुड
३०१ भावना रखनी, ऐसा आशय है।।१०६।।
इसप्रकार श्रीकुन्दकुन्द आचार्य ने यह मोक्षपाहुडग्रंथ संपूर्ण किया। इसका संक्षेप इसप्रकार है कि यह जीव शुद्ध दर्शन-ज्ञानमयी चेतनास्वरूप है तो भी अनादि ही से पुद्गल कर्म के संयोग से अज्ञान मिथ्यात्व रागद्वेषादिक विभावरूप परिणमता है इसलिए नवीन कर्मबंध के संतान से संसार में भ्रमण करता है। जीव की प्रवृत्ति के सिद्धान्त में सामान्यरूप से चौदह गुणस्थान निरूपण किये हैं, इनमें मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । मिथ्यात्व की सहकारिणी अनंतानुबंधी कषाय है, केवल उसके उदय से सासादन गुणस्थान होता है और सम्यक्त्व मिथ्यात्व दोनों के मिलापरूप मिश्रप्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थान होता है, इन तीन गुणस्थानों में तो आत्मभावना
का अभाव ही है। __ जब *काललब्धि के निमित्त से जीवाजीव पदार्थों का ज्ञान-श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है तब इस जीव को अपना और पर का, हित-अहित का तथा हेय-उपादेय का जानना होता है, तब
आत्मा की भावना होती है, तब अविरतनाम चौथा गुणस्थान होता है। जब एकदेश परद्रव्य से निवृत्ति का परिणाम होता है, तब जो एकदेशचारित्ररूप पाँचवाँ गुणस्थान होता है उसको श्रावकपद कहते हैं। सर्वदेश परद्रव्य से निवृत्तिरूप परिणाम हो तब सकलचारित्ररूप छट्ठा गुणस्थान होता है, इसमें कुछ संज्वलन चारित्र मोह के तीव्र उदय से स्वरूप के साधने में प्रमाद होता है इसलिए इसका नाम प्रमत्त है, यहाँ से लगाकर ऊपर के गुणस्थानवालों को साधु कहते हैं। __जब संज्वलन चारित्रमोह का मंद उदय होता है तब प्रमाद का अभाव होकर स्वरूप के साधने में बड़ा उद्यम होता है तब इसका नाम अप्रमत्त, ऐसा सातवाँ गुणस्थान है, इसमें धर्मध्यान की पूर्णता है। जब इस गुणस्थान में स्वरूप में लीन हो तब सातिशय अप्रमत्त होता है, श्रेणी का प्रारंभ करता है। तब इससे ऊपर चारित्रमोह का अव्यक्त उदयरूप अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय नाम धारक ये तीन गुणस्थान होते हैं। चौथे से लगाकर दसवें सूक्ष्मसांपराय तक कर्म की निर्जरा विशेषरूप से गुणश्रेणीरूप होती है। __इससे ऊपर मोहकर्म के अभावरूप ग्यारहवाँ, बारहवाँ, उपशांतकषाय क्षीणकषाय गुणस्थान होते हैं। इसके पीछे शेष तीन घातिया कर्मों का नाश कर अनंत चतुष्टय प्रगट होकर अरहंत होता है यह सयोगी जिन नामक गुणस्थान है, यहाँ योग की प्रवृत्ति है। योगों का निरोधकर अयोगी जिन नाम का चौदहवाँ गुणस्थान होता है, यहाँ अघातिया कर्मों का भी नाश करके लगातार ही अनंतर समय में निर्वाणपद को प्राप्त होता है, यहाँ संसार के अभाव से मोक्ष नाम पाता है। *पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय श्लोक नं. २२० "रत्नत्रयरूप धर्म है वह निर्वाण का ही कारण है और उस समय पुण्य का आस्रव होता है वह अपराध शुभोपयोग का है।"