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मोक्षपाहुड
ते वि हु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१०४।। अर्हन्त: सिद्धा आचार्या उपाध्याया: साधवः पंच प र मष्ठि न : ।
ते अपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं ।।१०४।। अर्थ – अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं ये भी आत्मा में चेष्टारूप हैं, आत्मा की अवस्था हैं इसलिए मेरे आत्मा का ही शरण है, इसप्रकार आचार्य ने अभेदनय प्रधान करके कहा है।
भावार्थ - ये पाँच पद आत्मा ही के हैं, जब यह आत्मा घातिकर्म का नाश करता है तब अरहंतपद होता है, वही आत्मा अघाति कर्मों का नाश कर निर्वाण को प्राप्त होता है तब सिद्धपद कहलाता है, जब शिक्षा दीक्षा देनेवाला मुनि होता है तब आचार्य कहलाता है, पठनपाठन में तत्पर मुनि होता है तब उपाध्याय कहलाता है और जब रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग को केवल साधता है तब साधु कहलाता है, इसप्रकार पाँचों पद आत्मा ही में हैं। सो आचार्य विचार करते हैं कि जो इस देह में आत्मा स्थित है सो यद्यपि (स्वयं) कर्म आच्छादित है तो भी पाँचों पदों के योग्य है, इसी के शुद्धस्वरूप का ध्यान करना पाँचों पदों का ध्यान है इसलिए मेरे इस आत्मा ही का शरण है ऐसी भावना की है और पंचपरमेष्ठी का ध्यानरूप अंतमंगल बताया है ।।१०४।। ___आगे कहते हैं कि जो अंतसमाधिमरण में चार आराधना का आराधन कहा है यह भी आत्मा ही की चेष्टा है इसलिए आत्मा ही का मेरे शरण है -
सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारितं हि सत्तवं चेव। चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१०५।। सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चरित्रं हि सत्तपः चैव।
चत्त्वारः तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं ।।१०५।। अर्थ – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप ये चार आराधना हैं ये भी आत्मा में ही चेष्टारूप हैं, ये चारों आत्मा ही की अवस्था हैं, इसलिए आचार्य कहते हैं कि तेरे आत्मा ही का शरण है ।।१०५।। (भगवती आराधना गाथा नं. २) १. 'पाहुड' का पाठान्तर ‘कारणं' है, सं. छाया में भी समझ लेना।
सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण। सब आतमा की अवस्थायें आत्मा ही है शरण ।।१०५।।