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अष्टपाहुड उपादेय है और ऐसा जिसके निश्चय हो कि अन्य परद्रव्य के निमित्त से हुए अपने विकारभाव ये सब हेय हैं। साधु होकर आत्मा के स्वभाव के साधने में भलीभांति तत्पर हो, धर्म-शुक्लध्यान
और अध्यात्मशास्त्रों को पढ़कर ज्ञान की भावना में तत्पर हो, सुरत हो, भलेप्रकार लीन हो । ऐसा साधु उत्तमस्थान लोकशिखर पर सिद्धक्षेत्र तथा मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों से परे शुद्धस्वभावरूप मोक्षस्थान को पाता है।
भावार्थ - मोक्ष के साधने के ये उपाय हैं, अन्य कुछ नहीं है ।।१०१-१०२ ।।
आगे आचार्य कहते हैं कि सर्व से उत्तम पदार्थ शुद्ध आत्मा है वह इस देह में ही रह रहा है उसको जानो -
णविएहिं जंणविजइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं । थुव्वंतेहिं थुणिजइ देहत्थं किं पि तं मुणह ।।१०३।।
नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् ।
स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् जानीत ।।१०३।। अर्थ - हे भव्यजीवो ! तुम इस देह में स्थित ऐसा कुछ क्यों है, क्या है, उसे जानो, वह लोक में नमस्कार करने योग्य इन्द्रादि हैं, उनसे तो नमस्कार करने योग्य, ध्यान करने योग्य है और स्तुति करने योग्य जो तीर्थंकरादि हैं उनसे भी स्तुति करने योग्य है, ऐसा कुछ है वह इस देह ही में स्थित है उसको यथार्थ जानो।
भावार्थ - शुद्ध परमात्मा है वह यद्यपि कर्म से आच्छादित है तो भी भेदज्ञानी इस देह ही में स्थित का ही ध्यान करके तीर्थंकरादि भी मोक्ष प्राप्त करते हैं, इसलिए ऐसा कहा है कि लोक में नमने योग्य तो इंद्रादिक हैं और ध्यान करने योग्य तीर्थंकरादि हैं तथा स्तुति करने योग्य तीर्थंकरादिक हैं वे भी जिसको नमस्कार करते हैं. जिसका ध्यान करते हैं स्तति करते हैं. ऐसा कछ वचन के अगोचर भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर परमात्मा वस्तु है, उसका स्वरूप जानो उसको नमस्कार करो, उसका ध्यान करो, बाहर किसलिए ढूंढते हो, इसप्रकार उपदेश है।।१०३।।
आगे आचार्य कहते हैं कि अरहंतादिक पंच परमेष्ठी भी आत्मा में ही हैं इसलिए आत्मा ही शरण है -
अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी।
अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठी पण। सब आतमा की अवस्थायें आत्मा ही है शरण ।।१०४।।