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________________ मोक्षपाहुड यदि पठति बहुश्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधं च चारित्रं । तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मन: विपरीतम् । । १०० ।। २९७ अर्थ – जो आत्मस्वभाव से विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रों को पढ़ेगा और बहुत प्रकार के चारित्र का आचरण करेगा तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा । आत्मस्वभाव से विपरीत शास्त्र का पढ़ना और चारित्र का आचरण करना ये सब ही बालश्रुत व बालचारित्र हैं, अज्ञानी की क्रिया है, क्योंकि ग्यारह अंग और नव पूर्व तक तो अभव्यजीव भी पढ़ता है और बाह्य मूलगुरूप चारित्र भी पालता है तो भी मोक्ष के योग्य नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिए ।। १०० ।। आगे कहते हैं कि ऐसा साधु मोक्ष पाता है - वेरग्गपरो साहू परदव्वपरम् हो य जो होदि । संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ।। १०१ ।। गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू। झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ।। १०२ ।। वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च यः भवति । संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्त: ।। १०१ ।। गुणगणविभूषितांग: हेयोपादेयनिश्चित: साधुः । ध्यानाध्ययने सुरतः सः प्राप्नोति उत्तमं स्थानम् ।। १०२ ।। अर्थ – ऐसा साधु उत्तम स्थान रूप मोक्ष की प्राप्ति करता है अर्थात् जो साधु वैराग्य में तत्पर हो संसार-देह भोगों से पहिले विरक्त होकर मुनि हुआ उसी भावनायुक्त हो, परद्रव्य से पराङ्मुख हो, जैसे वैराग्य हुआ वैसे ही परद्रव्य का त्याग कर उससे पराङ्मुख रहे, संसार संबंधी इन्द्रियों के द्वारा विषयों से सुख-सा होता है, उससे विरक्त हो, अपने आत्मीक शुद्ध अर्थात् कषायों के क्षोभ से रहित निराकुल, शांतभावरूप ज्ञानानन्द में अनुरक्त हो, लीन हो, बारंबार उसी की भावना रहे। जिसका आत्मप्रदेशरूप अंग गुण के गण से विभूषित हो, जो मूलगुण उत्तरगुणों से आत्मा को अलंकृत-शोभायमान किये हो, जिसके हेय उपादेय तत्त्व का निश्चय हो, निज आत्मद्रव्य तो आदेय क्या है हेय क्या - - यह जानते जो साधुगण । वे प्राप्त करते थान उत्तम जो अनन्तानन्दमय ।। १०२ ।। जिनको नमे श्रुति करे जिनकी ध्यान जिनका जग करे। I वे न ध्यावें श्रुति करें तू उसे ही पहिचान ले ।। १०३ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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