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अष्टपाहुड पर धारामात्र देते हैं और उस दिन उपवास करते हैं तो ऐसा स्नान तो नाममात्र स्नान है, यहाँ मंत्र और तपस्नान प्रधान है, जलस्नान प्रधान नहीं है, इसप्रकार जानना ।।९८।।
आगे कहते हैं कि जो आत्मस्वभाव से विपरीत बाह्य क्रियाकर्म है वह क्या करे ? मोक्षमार्ग में तो कुछ भी कार्य नहीं करते हैं -
किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु। किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो ।।९९।। किं करिष्यति बहिः कर्म किंकरिष्यति बहुविधंच क्षमणंतु।
किं करिष्यति आताप: आत्मस्वभावात् विपरीतः ।।९९।। अर्थ - आत्मस्वभाव से विपरीत, प्रतिकूल बाह्यकर्म में जो क्रियाकांड वह क्या करेगा ? कुछ मोक्ष का कार्य तो किंचिन्मात्र भी नहीं करेगा, बहुत अनेकप्रकार क्षमण अर्थात् उपवासादि बाह्य तप भी क्या करेगा ? कुछ भी नहीं करेगा, आतापनयोग आदि कायक्लेश क्या करेगा ? कुछ भी नहीं करेगा।
भावार्थ - बाह्य क्रियाकर्म शरीराश्रित हैं और शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है, जड़ की क्रिया तो चेतन को कुछ फल करती नहीं है, जैसा चेतना का भाव जितना क्रिया में मिलता है उसका फल चेतन को लगता है। चेतन का अशुभ उपयोग मिले तब अशुभकर्म बँधे और शुभ उपयोग मिले तब शुभकर्म बँधता है और जब शुभ-अशुभ दोनों से रहित उपयोग होता है, तब कर्म नहीं बँधता है, पहिले बँधे हुए कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष करता है।
इसप्रकार चेतना उपयोग के अनुसार फलती है, इसलिए ऐसा कहा है कि बाह्य क्रिया कर्म से तो कुछ मोक्ष होता नहीं है, शुद्ध उपयोग होने पर मोक्ष होता है। इसलिए दर्शन ज्ञान उपयोग का विकार मेटकर शुद्ध ज्ञान चेतना का अभ्यास करना मोक्ष का उपाय है ।।९९।। आगे इसी अर्थ को फिर विशेषरूप से कहते हैं -
जदि पढदि बहुसुदाणि यजदि काहिदि बहुविहंच चारित्तं । तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ।।१००।।
यदि पढ़े बहुश्रुत और विविध क्रिया-कलाप करे बहुत । पर आत्मा के भान बिन बालाचरण अर बालश्रुत ।।१०।। निजसुख निरत भवसुख विरत परद्रव्य से जो परामख । वैराग्य तत्पर गुणविभूषित ध्यान धर अध्ययन सुरत ।।१०१।।