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अष्टपाहुड
सः ध्यातव्य: नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।।६४।। अर्थ – आत्मा चारित्रवान् है और दर्शन-ज्ञान सहित है ऐसा आत्मा गुरु के प्रसाद से जानकर नित्य ध्यान करना।
भावार्थ - आत्मा का रूप दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी है, इसका रूप जैनगुरुओं के प्रसाद से जाना जाता है। अन्यमतवाले अपना बुद्धिकल्पित जैसा तैसा मानकर ध्यान करते हैं, उनके यथार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिए जैनमत के अनुसार ध्यान करना ऐसा उपदेश है ।।६४।।
आगे कहते हैं कि आत्मा का जानना, भाना और विषयों से विरक्त होना ये उत्तरोत्तर दुर्लभ होने से दुःख से (दृढ़तर पुरुषार्थ से) प्राप्त होते हैं -
दुक्खे णजइ अप्पा अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं । भावियसहावपुरिसो विसयेसु विरच्चए दुक्खं ।।६५।। दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम्।
भावितस्वभावपुरुष: विषयेषु विरज्यति दुःखम् ।।६५।। अर्थ - प्रथम तो आत्मा को जानते हैं वह दुःख से जाना जाता है, फिर आत्मा को जानकर भी भावना करना. फिर फिर उसी का अनभव करना द:ख से (उग्र परुषार्थ से) होता है. कदाचित भावना भी किसी प्रकार हो जावे तो भायी है जिनभावना जिसने ऐसा पुरुष विषयों से विरक्त बड़े दुःख से (अपूर्व पुरुषार्थ से) होता है। ___ भावार्थ - आत्मा का जानना, भाना विषयों से विरक्त होना उत्तरोत्तर यह योग मिलना बहुत दुर्लभ है, इसलिए यह उपदेश है कि ऐसा सुयोग मिलने पर प्रमादी न होना ।।६५।। आगे कहते हैं कि जबतक विषयों में यह मनुष्य प्रवर्तता है तबतक आत्मज्ञान नहीं होता -
ताम ण णजइ अप्पा विसएसु णरो पवट्ठए जाम । विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ।।६६।।
तावन्न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत् ।
विषये विरक्तचित्त: योगी जानाति आत्मानम् ।।६६।। अर्थ जबतक यह मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में प्रवर्तता है तबतक आत्मा को नहीं जानता
आत्मों को जानना भाना व करना अनुभवन। तथा विषयों से विरक्ति उत्तरोत्तर है कठिन ।।५।। जबतक विषय में प्रवृत्ति तबतक न आतमज्ञान हो। इसलिए आतम जानते योगी विषय विरक्त हों।।६६।।