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मोक्षपाहुड
है, इसलिए योगी ध्यानी मुनि है वह विषयों से विरक्त चित्त होता हुआ आत्मा को जानता है।
भावार्थ - जीव के स्वभाव के उपयोग की ऐसी स्वच्छता है कि जो जिस ज्ञेय पदार्थ में उपयुक्त होता है, वैसा ही हो जाता है, इसलिए आचार्य कहते हैं कि जबतक विषयों में चित्त रहता है, तबतक उनरूप रहता है, आत्मा का अनुभव नहीं होता है, इसलिए योगी मुनि इसप्रकार विचार कर विषयों से विरक्त हो आत्मा में उपयोग लगावे तब आत्मा को जाने, अनुभव करे, इसलिए विषयों से विरक्त होना यह उपदेश है ।। ६६।।
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैं कि आत्मा को जानकर भी भावना बिना संसार में ही
रहता है
-
अप्पा गाऊण णरा केई सब्भावभावपब्भट्ठा ।
हिडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा । । ६७ ।।
आत्मानं ज्ञात्वा नरः केचित् सद्भावभावप्रभ्रष्टाः । हिण्डन्ते चातुरंगं विषयेषु विमोहिताः मूढाः ||६७।।
अर्थ - कई मनुष्य आत्मा को जानकर भी अपने स्वभाव की भावना से अत्यंत भ्रष्ट हुए विषयों में मोहित होकर अज्ञानी मूर्ख चार गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं।
भावार्थ - पहिले कहा था कि आत्मा को जानना, भाना, विषयों से विरक्त होना ये उत्तरोत्तर दुर्लभ पाये जाते हैं, विषयों में लगा हुआ प्रथम तो आत्मा को जानता नहीं है ऐसे कहा, अब यहाँ इसप्रकार कहा कि आत्मा को जानकर भी विषयों के वशीभूत हुआ भावना नहीं करे तो संसार ही में भ्रमण करता है, इसलिए आत्मा को जानकर विषयों से विरक्त होना यह उपदेश है ।। ६७ ।। आगे कहते हैं कि जो विषयों से विरक्त होकर आत्मा को जानकर भाते हैं वे संसार को छोड़ते हैं -
पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया । छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो । । ६८ ।।
ये पुन: विषयविरक्ता: आत्मानं ज्ञात्वा भावनासहिताः । त्यजन्ति चातुरंमं तमोगुणयुक्ताः न संदेहुः ।। ६८ ।। निज आतमा को जानकर भी मूढ़ रमते विषय में ।' हो
स्वानुभव से भ्रष्ट भ्रमते चतुर्गति संसार में ।। ६७ ।। अरे विषय विरक्त हो निज आतमा को जानकर । जो तपोगुण से युक्त हों वे चतुर्गति से मुक्त हों ।। ६८ ।।