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________________ २७५ मोक्षपाहुड हो जाता है, इसलिए यह उपदेश है कि जो योगी ध्यानी मुनि है वह तपश्चरणादि के कष्ट (दु:ख) सहित आत्मा को भावे। (अर्थात् बाह्य में जरा भी अनुकूल-प्रतिकूल न मानकर निज आत्मा में ही एकाग्रतारूपी भावना करे, जिससे आत्मशक्ति और आत्मिक आनंद का प्रचुर संवेदन बढ़ता ही है।) भावार्थ - तपश्चरण का कष्ट अंगीकार करके ज्ञान को भावे तो परीषह आने पर ज्ञानभावना से चिगे नहीं, इसलिए शक्ति के अनुसार दुःख सहित ज्ञान को भाना, सुख ही में भावे तो दु:ख आने पर व्याकुल हो जावे तब ज्ञानभावना न रहे, इसलिए यह उपदेश है ।।६२।। आगे कहते हैं कि आहार, आसन, निद्रा इनको जीत कर आत्मा का ध्यान करना - आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिनवरमएण। झायव्वो णिय अप्पा णाऊणं गुरुपसाएण ।।६३।। आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन । ध्यातव्य: निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।।६३।। अर्थ - आहार, आसन, निद्रा इनको जीतकर और जिनवर के मत से तथा गुरु के प्रसाद से जानकर निज आत्मा का ध्यान करना। भावार्थ - आहार, आसन, निद्रा को जीतकर आत्मा का ध्यान करना तो अन्य मतवाले भी कहते हैं, परन्तु उनके यथार्थ विधान नहीं है इसलिए आचार्य कहते हैं कि जैसे जिनमत में कहा है, उस विधान को गुरु के प्रसाद से जानकर ध्यान करना सफल है, जैसे जैनसिद्धान्त में आत्मा का स्वरूप तथा ध्यान का स्वरूप और आहार, आसन, निद्रा इनके जीतने का विधान कहा है वैसे जानकर इनमें प्रवर्तना ।।६३।। आगे आत्मा का ध्यान करना वह आत्मा कैसा है, यह कहते हैं - अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा। सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण ।।६४।। आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुत: आत्मा। आहार निद्रा और आसन जीत ध्याओ आतमा। बस यही है जिनदेव का मत यही गुरु की आज्ञा ।।६३।। ज्ञान दर्शन चरित मय जो आतमा जिनवर कहा। गुरु की कृपा से जानकर नित ध्यान उसका ही करो।।६४।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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