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अष्टपाहुड
चारित्र की एकता को तप कहा है)
भावार्थ - तीर्थंकर मति-श्रुत-अवधि इन तीन ज्ञान सहित तो जन्म लेते हैं और दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है, मोक्ष उनको नियम से होना है तो भी तप करते हैं, इसलिए ऐसा जानकर ज्ञान होते हुए भी तप करने में तत्पर होना, ज्ञानमात्र ही से मुक्ति नहीं मानना ।।६०।।
आगे जो बाह्यलिंग सहित है और अभ्यन्तरलिंग रहित है वह स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्ग का विनाश करनेवाला है, इसप्रकार सामान्यरूप से कहते हैं -
बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्ठो मोक्खपहविणासगो साहू ।।६१।। बाह्यलिंगेन युतः अभ्यंतरलिंगरहितपरिका।
स: स्वकचारित्रभ्रष्ट: मोक्षपथविनाशक: साधुः ।।६१।। अर्थ - जो जीव बाह्य लिंग-भेष सहित है और अभ्यंतर लिंग जो परद्रव्यों में सर्व रागादिक ममत्वभाव रहित ऐसे आत्मानुभव से रहित है तो वह स्वक-चारित्र अर्थात् अपने आत्मस्वरूप के आचरण-चारित्र से भ्रष्ट है, परिकर्म अर्थात् बाह्य में नग्नता, ब्रह्मचर्यादि शरीरसंस्कार से परिवर्तनवान द्रव्यलिंगी होने पर भी वह स्व-चारित्र से भ्रष्ट होने से मोक्षमार्ग का विनाश करनेवाला है ।।६।। (अतः मुनि-साधु को शुद्धभाव को जानकर निज शुद्ध बुद्ध एकस्वभावी आत्मतत्त्व में नित्य भावना (एकाग्रता) करनी चाहिए।) (श्रुतसागरी टीका से)
भावार्थ - यह संक्षेप से कहा जानो कि जो बाह्यलिंग संयुक्त है और अभ्यंतर अर्थात् भावलिंग रहित है, वह स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्ग का नाश करनेवाला है।।६१।।
आगे कहते हैं कि जो सुख से भावित ज्ञान है वह दुःख आने पर नष्ट होता है इसलिए तपश्चरणसहित ज्ञान को भाना -
सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ।।६२।।
सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति ।
तस्मात् यथाबलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत् ।।६२।। _____अर्थ - मुख से भाया हुआ ज्ञान है वह उपसर्ग-परीषहादि के द्वारा दुःख उत्पन्न होते ही नष्ट
अनुकूलता में जो सहज प्रतिकूलता में नष्ट हो। इसलिये प्रतिकूलता में करो आतम साधना ।।२।।