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मोक्षपाहुड
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई।।४९।।
भूत्वा दृछ चरित्रः दृढ सम्यक्त्वेन भ । वि त म ति : ।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ।।४९।। अर्थ - पूर्वोक्त प्रकार जिसकी मति दृढ सम्यक्त्व से भावित है ऐसे योगी ध्यानी मुनि दृढचारित्रवान होकर आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद अर्थात् परमात्मपद को प्राप्त करता है।
भावार्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप दृढ होकर परिषह आने पर भी चलायमान न हो, इसप्रकार से आत्मा का ध्यान करता है वह परमपद को प्राप्त करता है - ऐसा तात्पर्य है ।।४९।।
आगे दर्शन, ज्ञान, चारित्र से निर्वाण होता है ऐसा कहते आये वह दर्शन, ज्ञान तो जीव का स्वरूप है, उसको जाना, परन्तु चारित्र क्या है ? ऐसी आशंका का उत्तर कहते हैं -
चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो। सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ।।५०॥ चरणंभवति स्वधर्म: धर्म:स: भवति आत्मसमभावः ।
स: रागदोषरहित: जीवस्य अनन्यपरिणामः ।।५०।। अर्थ - स्वधर्म अर्थात् आत्मा का धर्म है वह चरण अर्थात् चारित्र है। धर्म है वह आत्मसमभाव है, सब जीवों में समानभाव है। जो अपना धर्म है वही सब जीवों में है अथवा सब जीवों को अपने समान मानना है और जो आत्मस्वभाव से ही (स्वाश्रय के द्वारा) रागद्वेष रहित है, किसी से इष्टअनिष्ट बुद्धि नहीं है - ऐसा चारित्र है वह जैसे जीव के दर्शन-ज्ञान है वैसे ही अनन्य परिणाम है, जीव का ही भाव है।
भावार्थ - चारित्र है वह ज्ञान में रागद्वेष रहित निराकुलतारूप स्थिरभाव है वह जीव का ही अभेदरूप परिणाम है, कुछ अन्य वस्तु नहीं है ।।५० ।।
आगे जीव के परिणाम की स्वच्छता को दृष्टान्त पूर्वक दिखाते हैं -
चारित्र ही निजधर्म है अर धर्म आत्मस्वभाव है। अनन्य निज परिणाम वह ही राग-द्वेष विहीन है।।५०।। फटिकमणिसम जीव शुध पर अन्य के संयोग से। वह अन्य-अन्य प्रतीत हो, पर मूलत: है अनन्य ही।।५१।।