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अष्टपाहुड
जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो। तह रागादिविजुत्तो जीवा हवदि हु अणण्णविहो ।।५१।। यथा स्फटिकमणि: विशुद्धः परद्रव्ययुत: भवत्यन्यः सः।
तथा रागादिवियुक्त: जीव: भवति स्फुटमन्यान्यविधः ।।५१।। अर्थ - जैसे स्फटिकमणि विशुद्ध है, निर्मल है, उज्ज्वल है वह परद्रव्य जो पीत, रक्त, हरित पुष्पादिक से युक्त होने पर अन्य सा दीखता है, पीतादिवर्णमयी दीखता है वैसे ही जीव विशुद्ध है स्वच्छ स्वभाव है, परन्तु यह (अनित्य पर्याय में अपनी भूल द्वारा स्व से च्युत होता है तो) रागद्वेषादिक भावों से युक्त होने पर अन्य-अन्य प्रकार हुआ दीखता है, यह प्रगट है।
भावार्थ - यहाँ ऐसा जानना है कि रागादि विकार है वह पुद्गल के हैं और ये जीव के ज्ञान में आकर झलकते हैं तब उनसे उपयुक्त होकर इसप्रकार जानता है कि ये भाव मेरे ही हैं, जबतक इनका भेदज्ञान नहीं होता है तबतक जीव अन्य अन्य प्रकार-रूप अनुभव में आता है। यहाँ स्फटिकमणि का दृष्टान्त है उसके अन्य द्रव्य पुष्पादिक का डांक लगता है, तब अन्य सा दीखता है, इसप्रकार जीव के स्वच्छभाव की विचित्रता जानना ।।५१।।
इसीलिए आगे कहते हैं कि जब तक मुनि के (मात्र चारित्र दोष में) राग-द्वेष का अंश होता है तबतक सम्यग्दर्शन को धारण करता हुआ भी ऐसा होता है -
देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मियसंजदेसु अणुरत्तो। सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होदि जोई सो।।५२।।
देवे गुरौ च भक्त: साधर्मिके च संयतेषु अनुरक्तः।
सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरतः भवति योगी सः ॥५२॥ अर्थ – जो योगी ध्यानी मुनि सम्यक्त्व को धारण करता है और जबतक यथाख्यात चारित्र को प्राप्त नहीं होता है तबतक अरहंत सिद्ध देव में और शिक्षा दीक्षा देनेवाले गुरु में तो भक्तियुक्त होता ही है इनकी भक्ति विनय सहित होती है और अन्य संयमी मुनि अपने समान धर्म सहित हैं
देव-गुरु का भक्त अर अनुरक्त साधक वर्ग में। सम्यक्सहित निज ध्यानरत ही योगि हो इस जगत में॥५२।। उग्र तप तप अज भव-भव में न जितने क्षय करें। विज्ञ अन्तर्मुहूरत में कर्म उतने क्षय करें ।।५३।।