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अष्टपाहुड रहो, स्वप्न में भी कदाचित् भी नहीं रुचती है उसका स्वप्न आता है तो भी अवज्ञा होती है तो वह जीव संसाररूप गहन वन में रहता है, मोक्ष के सुख को प्राप्त नहीं कर सकता।
भावार्थ - जिनदेवभाषित जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है वह मोक्षरूप ही है, क्योंकि जिनमुद्रा के धारक वर्तमान में भी स्वाधीन सुख को भोगते हैं और पीछे मोक्ष के सुख को प्राप्त करते हैं। जिस जीव को यह नहीं रुचती है वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता, संसार में ही रहता है ।।४७।।
आगे कहते हैं कि जो परमात्मा का ध्यान करता है वह योगी लोभरहित होकर नवीन कर्म का आस्रव नहीं करता है -
परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेई मलदलोहेण । णादियदि णवं कम्मं णिद्दिष्टुं जिणवरिंदेहि ।।४८।।
परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन ।
नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः ।।४८।। अर्थ - जो योगी ध्यानी परमात्मा का ध्यान करता हुआ रहता है वह मल देनेवाले लोभकषाय से छूटता है उसके लोभ मल नहीं लगता है इसी से नवीन कर्म का आस्रव उसके नहीं होता है यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है।
भावार्थ - मुनि भी हो और परजन्मसंबंधी प्राप्ति का लोभी होकर निदान करे उसके परमात्मा का ध्यान नहीं होता है इसलिए जो परमात्मा का ध्यान करे उसके इस लोक परलोक संबंधी परद्रव्य का कुछ भी लोभ नहीं होता है इसीलिए उसके नवीन कर्म का आस्रव नहीं होता - ऐसा जिनदेव ने कहा है। यह लोभ कषाय ऐसा है कि दसवें गुणस्थान तक पहुँच जाने पर भी अव्यक्त होकर आत्मा के मल लगाता है। इसलिए इसको काटना ही युक्त है अथवा जबतक मोक्ष की चाहरूप लोभ रहता है तबतक मोक्ष नहीं होता इसलिए लोभ का अत्यंत निषेध है।।४८।।
आगे कहते हैं कि जो ऐसा निर्लोभी बनकर दृढ़ सम्यक्त्व ज्ञान चरित्रवान होकर परमात्मा का ध्यान करता है वह परमपद को पाता है -
होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ।
परमात्मा के ध्यान से हो नाश लोभ कषाय का। नवकर्म का आस्रव रुके यह कथन जिनवरदेव का ।।४८।। जो योगि सम्यक्दर्शपूर्वक चारित्र दृढ़ धारण करे। निज आतमा का ध्यानधर वह मुक्ति की प्राप्ति करे॥४९।।