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मोक्षपाहुड सुख
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आगे कहते हैं कि जो विषय कषायों में आसक्त है, परमात्मा की भावना से रहित है, रौद्रपरिणामी है, वह जिनमत से पराङ्मुख है, अत: वह मोक्ष के सुखों को प्राप्त नहीं कर सकता - विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो । सोण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो ॥ ४६ ॥ विषयकषायै: युक्त: रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः । सः न लभते सिद्धिसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखः जीवः ।। ४६ ।।
अर्थ - जो जीव विषय-कषायों से युक्त है, रौद्रपरिणामी है, हिंसादिक विषय - कषायादिक पापों में हर्षसहित प्रवृत्ति करता है और जिसका चित्त परमात्मा की भावना से रहित है ऐसा जीव जिनमुद्रा से पराङ्मुख है वह ऐसे सिद्धिसुख जो मोक्ष के सुख को प्राप्त नहीं कर सकता ।
प्राप्त करता है ।। ४५ ॥
भावार्थ - जिनमत में ऐसा उपदेश है कि जो हिंसादिक पापों से विरक्त हो, विषय-कषायों में आसक्त न हो और परमात्मा का स्वरूप जानकर उसकी भावनासहित जीव होता है, वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है इसलिए जिनमत की मुद्रा से जो पराङ्मुख है उसको मोक्ष कैसे ? वह तो संसार में ही भ्रमण करता है । यहाँ रुद्र का विशेषण दिया है, उसका ऐसा भी आशय है कि रुद्र ग्यारह होते हैं, ये विषय-कषायों में आसक्त होकर जिनमुद्रा से भ्रष्ट होते हैं, इनको मोक्ष नहीं होता है, इनकी कथा पुराणों से जानना ।। ४६ ।।
आगे कहते हैं कि जिनमुद्रा से मोक्ष होता है, किन्तु यह मुद्रा जिन जीवों को नहीं रुचती है वे संसार में ही रहते हैं.
जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण 'जिणवरुद्दिनं । सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे । ।४७।। निमुद्रा सिद्धिसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा । स्वप्नेऽपि न रोचते पुनः जीवाः तिष्ठति भवगहने । । ४७ ।।
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अर्थ – जिन भगवान के द्वारा कही गई जिनमुद्रा है वही सिद्धिसुख है, मुक्तिसुख ही है, यह कारण में कार्य का उपचार जानना, जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है, मोक्षसुख उसका कार्य है। ऐसी जिनमुद्रा जिन भगवान ने जैसी कही है वैसी ही है। ऐसी जिनमुद्रा जिस जीव को साक्षात् तो दूर ही
१. पाष्ठन्तिर: - जिंणवरुद्दिट्ठा ।
जिनवर कथित जिनलिंग ही है सिद्धसुख यदि स्वप्न में ।
भी ना रुचे तो जान लो भव गहन वन में वे रुलें || ४७।।