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मोक्षपाहुड
२५१ निमित्त से सब ही स्वर्ग को प्राप्त करते हैं, परन्तु जो ध्यान के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं, वे जिनमार्ग में कहे हुए ध्यान के योग से परलोक में जिसमें शाश्वत सुख है - ऐसे निर्वाण को प्राप्त करते हैं।।२३।। आगे ध्यान के योग से मोक्ष प्राप्त करते हैं इस दृष्टान्त को दार्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं -
अइसोहणजोएणं सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य। कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ।।२४।।
अतिशोभनयोगेनं शुद्धं हेमं भवति यथा तथा च ।
कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति ।।२४।। अर्थ – जैसे सुवर्ण पाषाण सोधने की सामग्री के संबंध से शुद्ध स्वर्ण हो जाता है, वैसे ही काल आदि लब्धि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप सामग्री की प्राप्ति से यह आत्मा कर्म के संयोग से अशुद्ध है वही परमात्मा हो जाता है ।।२४।।
भावार्थ सुगम है।
आगे कहते हैं कि संसार में व्रत, तप से स्वर्ग होता है, वह व्रत तप भला है, परन्तु अव्रतादिक से नरकादिक गति होती है, वह अव्रतादिक श्रेष्ठ नहीं हैं -
वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ।।२५।।
वरं व्रततपोभिः स्वर्ग: मा दुःखं भवतु नरके इतरैः।
छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः ।।२५।। अर्थ – व्रत और तप से स्वर्ग होता है वह श्रेष्ठ है, परन्तु अव्रत और अतप से प्राणी को नरकगति में दुःख होता है वह मत होवे, श्रेष्ठ नहीं है। छाया और आतप में बैठनेवाले के प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है।
भावार्थ - जैसे छाया का कारण तो वृक्षादिक हैं इनकी छाया में जो बैठे वह सुख पावे और आताप का कारण सूर्य, अग्नि आदिक हैं, इनके निमित्त से आताप होता है जो उसमें बैठता है वह
ज्यों शोधने से शुद्ध होता स्वर्ण बस इसतरह ही। हो आतमा परमातमा कालादि लब्धि प्राप्त कर ।।२४।। ज्यों धूप से छाया में रहना श्रेष्ठ है बस उसतरह। अव्रतों से नरक व्रत से स्वर्ग पाना श्रेष्ठ है।।२५।।