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अष्टपाहुड
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दुःख को प्राप्त करता है इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है, इसप्रकार ही जो व्रत, तप का आचरण करता है वह स्वर्ग के सुख को प्राप्त करता है और जो इनका आचरण नहीं करता है, विषय- कषायादिक का सेवन करता है, वह नरक के दुःख को प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है । इसलिए यहाँ कहने का यह आशय है कि जबतक निर्वाण न हो तबतक व्रत -तप आदि में प्रवर्तना श्रेष्ठ है इससे सांसारिक सुख की प्राप्ति है और निर्वाण के साधने में भी ये सहकारी हैं। विषय- कषायादिक की प्रवृत्ति का फल तो केवल नरकादिक के दुःख हैं, उन दुःखों के कारणों का सेवन करना यह तो बड़ी भूल है, इसप्रकार जानना चाहिए ।। २५।।
आगे कहते हैं कि संसार में रहे तबतक व्रत, तप पालना श्रेष्ठ कहा, परन्तु जो संसार से निकलना चाहे वह आत्मा का ध्यान करे
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जो इच्छइ णिस्सरिदुं 'संसारमहण्णवाउ रुंदाओ ।
कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ॥ २६ ॥
यः इच्छति निःसर्तुं संसारमहार्णवात् रुद्रात् । कर्मेन्धनानां दहनं सः ध्यायति आत्मानं शुद्धम् ।।२६।।
अर्थ - जो जीव रुद्र अर्थात् बड़े विस्ताररूप संसाररूपी समुद्र उससे निकलना चाहता है वह जीव कर्मरूपी ईंधन को दहन करनेवाले शुद्ध आत्मा के ध्यान को करता है ।
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भावार्थ - निर्वाण की प्राप्ति कर्म का नाश हो तब होती है और कर्म का नाश शुद्धात्मा ध्यान से होता है, अत: जो संसार से निकलकर मोक्ष को चाहे वह शुद्ध आत्मा, जो कि कर्मम से रहित अनन्त चतुष्टय सहित (निज निश्चय) परमात्मा है उसका ध्यान करता है । मोक्ष का उपाय इसके बिना अन्य नहीं है ।। २६ ।।
आगे आत्मा का ध्यान करने की विधि बताते हैं
सव्वे कसाय मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं ।
१. मुद्रित सं. प्रति में ‘संसारमहण्णवस्स रुद्दस्स' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'संसारमहार्णवस्य रुद्रस्य' ऐसी है । जो भव्यजन संसार सागर पार होना चाहते ।
वे कर्म ईंधन - दहन निज शुद्धात्मा को ध्यावते ।। २६ ।।
अरे मुनिजन मान - मद आदिक कषायें छोड़कर । लोक के व्यवहार से हों विरत ध्याते आतमा ।। २७ ।।