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भावपाहुड आगे संक्षेप से उपदेश करते हैं -
भावसवणो वि पावइ सुक्खाइंदुहाई दव्वसवणो य। इय णाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होह ।।१२७।। भावश्रमण: अपि प्राप्नोति सुखानिदुःखानि द्रव्यश्रमणश्च।
इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव ।।१२७।। अर्थ - भावश्रमण तो सुखों को पाता है और द्रव्यश्रमण दुःखों को पाता है इसप्रकार गुण दोषों को जानकर हे जीव ! तू भाव सहित संयमी बन ।
भावार्थ - सम्यग्दर्शनसहित भावश्रमण होता है, वह संसार का अभाव करके सुखों को पाता है और मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होता है, यह संसार का अभाव नहीं कर सकता है, इसलिए दु:खों को पाता है। अत: उपदेश करते हैं कि दोनों के गुण-दोष जानकर भावसंयमी होना योग्य है, यह सब उपदेश का सार है ।।१२७।। आगे फिर भी इसी का उपदेश अर्थरूप संक्षेप से कहते हैं -
तित्थयरगणहराई अब्भुदयपरंपराई सोक्खाई। पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वजरियं ।।१२८।। तीर्थंकरगणधरादीनि अभ्युदयपरंपराणि सौख्यानि ।
प्राप्नुवंति भावश्रमणा: संक्षेपेण जिनैः भणितम् ।।१२८।। अर्थ – जो भावसहित मुनि हैं, वे अभ्युदयसहित तीर्थंकर-गणधर आदि पदवी के सुखों को पाते हैं, यह संक्षेप से कहा है।
भावार्थ - तीर्थंकर गणधर चक्रवर्ती आदि पदों के सुख बड़े अभ्युदयसहित हैं, उनको भावसहित सम्यग्दृष्टि मुनि पाते हैं। यह सब उपदेश का संक्षेप से उपदेश कहा है, इसलिए भावसहित मुनि होना योग्य है ।।१२८।।
१. संस्कृत मुद्रित प्रति में 'विकृतां' पाठ है।
जो धीर हैं गम्भीर हैं जिन भावना से सहित हैं। वे ऋद्धियों में मुग्ध न हों अमर विद्याधरों की ।।१३०।। इन ऋद्धियों से इसतरह निरपेक्ष हों जो मनि धवल। क्यों अरे चाहें वे मुनी निस्सार नरसुर सुखों को।।१३१।।